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जिन लोगों के दांत जल्दी गिर जाते हैं, उनकी याद्दाश्त कमजोर होने का खतरा बढ़ जाता है। यह कहना है दांत पर रिसर्च करने वाले अमेरिकी रिसर्चर्स का। इंसान के दांतों को लेकर अमेरिकी रिसर्चर्स ने दावा किया है कि जिस इंसान के दांत जल्दी गिरने शुरू हो जाते हैं, उनमें डिमेंशिया होने का खतरा भी बढ़ जाता है।
डिमेंशिया यानी ऐसी बीमारी जिसमें इंसान की याद्दाश्त कम होने लगती है। रिसर्च करने वाले न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स का कहना है- दांतों के गिरने से इंसान की याद्दाश्त और सोचने-समझने की क्षमता पर बुरा असर पड़ता है।
मसूड़ों की बीमारी और कम होती याद्दाश्त के बीच है संबंध
रिसर्चर्स का कहना है कि दांत और याद्दाश्त के बीच इस कनेक्शन की सटीक वजह अब तक सामने नहीं आ पाई है, लेकिन इनके बीच कोई न कोई संबंध जरूर है। जैसे- दांत टूटने के बाद इंसान को खाना चबाने में दिक्कत होती है। खाना ठीक से न चबा पाने के कारण शरीर में पोषक तत्वों की कमी से ऐसा हो सकता है। या फिर मसूड़ों की बीमारी और गिरती याद्दाश्त के बीच कोई और संबंध भी हो सकता है। इसलिए ओरल हेल्थ का ध्यान रखने की जरूरत है।
समय से पहले दांत टूटने वालों में डिमेंशिया का खतरा 1.28 गुना
रिसर्च के दौरान 30,076 लोगों पर हुई 14 स्टडी का विश्लेषण किया गया। इसमें 4,689 ऐसे लोग भी शामिल किए गए जिनकी सोचने-समझने की क्षमता काफी हद तक खत्म हो गई थी। नतीजे के तौर पर सामने आया कि जिन वयस्कों के दांत अधिक टूटे, उनमें अल्जाइमर्स का खतरा 1.48 गुना बढ़ गया था। वहीं, डिमेंशिया होने की आशंका 1.28 गुना ज्यादा थी।
ओरल हेल्थ का ध्यान रखना
जरूरी
रिसर्चर्स डॉ. बे वू का कहना है- हर साल काफी संख्या में अल्जाइमर्स और डिमेंशिया के मामले सामने आते हैं। ऐसे में जीवनभर ओरल हेल्थ का ध्यान रखना जरूरी है। डिमेंशिया की स्थिति में दिमाग के काम करने की क्षमता घटने लगती है और कोशिकाएं डैमेज होने लगती हैं।
रोज की छोटी-छीटी चीजें भी याद रखना मुश्किल हो जाता है
65 साल की उम्र में हर 14 में से एक इंसान और 80 साल की उम्र में हर 6 में से एक इंसान डिमेंशिया से जूझता है। वहीं, अल्जाइमर्स के मामले में इंसान की सोचने-समझने की क्षमता कम होने लगती है। स्थिति गंभीर होने पर इंसान छोटी-छोटी रोजमर्रा की चीजें करने में असमर्थ हो जाता है। इस बीमारी से मरीज के बिहेवियर और संबंधों पर भी असर पड़ता है।
इन रोगों का खतरा भी बढ़ता है
अल्जाइमर: नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में पब्लिश रिसर्च कहती है- जबड़ों से जुड़ी क्रेनियल नर्व या ब्लड सर्कुलेशन के जरिए ओरल बैक्टीरिया मस्तिष्क तक पहुंच सकते हैं, जिससे अल्जाइमर्स का खतरा बढ़ता है।
दिल को खतरा: मसूड़ों की समस्या से पीड़ित लोगों में दिल की धमनियों से जुड़ी समस्याओं का खतरा लगभग 2 गुना होता है। दिल की कार्य प्रणाली भी अनियमित होने का खतरा अधिक रहता है।
कैंसर: जर्नल ऑफ नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट में पब्लिश रिसर्च में पाया गया है कि मसूड़ों से संबंधित बीमारी से पीड़ित पुरुषों में पैन्क्रियाटिक कैंसर होने की आशंका 33 प्रतिशत अधिक होती है।
हडि्डयों की बीमारी: द एकेडमी ऑफ जनरल डेंटिस्ट्री का दावा है कि मसूड़ों में सूजन, ब्लीडिंग और कमजोर मसूड़ों से हड्डियां कमजोर हो सकती हैं, स्किन पर बुरा असर पड़ता है। नतीजा, इंसान अधिक उम्रदराज दिखता है।
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Oral-healthMantle-health-for-oralYork-universitya-researchersHer-centerNational-libraryMantle-healthNew-york-universityGeneral-dentistryவாய்வழி-ஆரோக்கியம்அவள்-மையம்தேசிய-நூலகம்अगर आप इन दिनों उदासी और तनाव से घिरे रहते हैं, तो बस अपने तय समय से एक घंटा पहले जागना शुरू करें। ऐसा करने से आप खुद को ज्यादा उत्साहित और तरोताजा महसूस करेंगे। जामा साइकेट्री से पता चला है कि सिर्फ एक घंटे पहले जागने से डिप्रेशन के खतरे को 23 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।
कोलोराडो बोल्डर यूनिवर्सिटी, एमआईटी और हार्वर्ड के ब्रॉड इंस्टीट्यूट के रिसर्चर ने 8,40,000 लोगों पर स्टडी की है, जिसका रिजल्ट ये बताता है कि रात में सोने और सुबह उठने की आदत डिप्रेशन के खतरे को प्रभावित करती है।
लॉकडाउन ने लोगों के स्लीपिंग पैटर्न को बहुत प्रभावित किया है। ऐसे में यह स्टडी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।
सोने के समय और मेंटल हेल्थ के बीच संबंध है
सीयू बोल्डर के एक असिस्टेंट प्रोफेसर और सीनियर राइटर सेलीन वेटर ने कहा कि ‘हम जानते हैं कि सोने के समय और मेंटल हेल्थ के बीच संबंध है, लेकिन इसे लेकर लोगों के मन में एक बड़ा सवाल आता है कि सुबह कितनी जल्दी उठना मेंटल हेल्थ के लिए ठीक है? इस स्टडी में हमने पाया कि रात में एक घंटा पहले सोना और सुबह एक घंटे पहले उठना डिप्रेशन के जोखिम को कम करता है।’
मेंटल हेल्थ से जुड़ी समस्या स्लीपिंग पैटर्न को प्रभावित करती है
इसके पहले हुई स्टडी में पता चला है कि जो लोग रात में जागते हैं, उनमें डिप्रेशन का खतरा ऐसे लोगों की तुलना में ज्यादा होता है जो सुबह जल्दी उठते हैं। फिर चाहें वे कितनी भी देर तक सोएं। लेकिन मेंटल हेल्थ से जुड़ी कोई भी समस्या खुद ही स्लीपिंग पैटर्न को प्रभावित कर सकती है, इसलिए रिसर्चर्स को इसके पीछे की वजह जानने में काफी समय लगा।
2018 में वेटर ने 32,000 नर्सों पर की गई एक स्टडी पब्लिश की थी, जिसमें दिखाया गया था कि चार साल तक “जल्दी उठने” वालों में डिप्रेशन की संभावना 27 प्रतिशत तक कम थी।
जल्दी सोने से भी कम होता है डिप्रेशन का खतरा
स्टडी से पता चलता है कि अगर कोई व्यक्ति जो आम तौर पर 1 बजे सोने के लिए बिस्तर पर जाता है, अगर वह रात 11 बजे बिस्तर पर जाए, तो वह डिप्रेशन के खतरे को लगभग 40 प्रतिशत तक कम कर सकते हैं।
स्टडी से यह स्पष्ट नहीं है कि जो लोग पहले से ही जल्दी उठने वाले हैं, उन्हें और पहले उठने से कोई लाभ होगा या नहीं। क्योंकि बायोलॉजिकल क्लॉक, या सर्कैडियन रिदम, अधिकांश लोगों में अलग-अलग होती है।
जबरन सुबह उठने के नुकसान हैं, इसलिए बॉडी क्लॉक सुधारना बेहद जरूरी
सेलीन वेटर के मुताबिक, जब किसी को जबरदस्ती उसकी बॉडी क्लॉक के खिलाफ जाकर देर तक जागने या फिर सुबह जल्दी उठने को कहा जाता है तो उसका भी बुरा असर होता है। शरीर से की गई जबरदस्ती कभी भी फायदेमंद नहीं होती। लोगों को उनकी सर्कैडियन क्लॉक यानी शरीर की जैविक घड़ी के हिसाब से ही चलने दिया जाए, तो उनका परफॉर्मेंस बेहतर होता है। ऐसे में अगर देर तक जागने या फिर सुबह देर तक सोने की आदत बदलनी हो तो इसके लिए बॉडी क्लॉक को सुधारना जरूरी है। इसके लिए आपको अपने खाने पीने से लेकर वर्कआउट, सोना-जागना हर चीज पर ध्यान देना होगा।
सुबह जल्दी उठने का असर मूड पर भी होता
है
कुछ रिसर्च से पता चलता है कि जल्दी उठने वालों को दिन के दौरान ज्यादा लाइट एक्सपोजर मिलता है। जिसकी वजह से हार्मोनल बदलाव होता है और इसका असर लोगों के मूड पर भी पड़ता है।
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