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लेखकः संजय वर्मा
मीडिया शिक्षण संस्थानों में पत्रकारिता से जुड़े खतरों के बारे में प्रायः नहीं पढ़ाया जाता। वहां नए पत्रकारों की पीढ़ी जिन खतरों के बारे में थोड़ी-बहुत समझ बना पाती है, वह नौकरी बचाने के उपायों तक सीमित रहती है। हालांकि यह स्किल कोरोना काल में उन पत्रकारों के काम जरूर आई होगी, जो छंटनी के तमाम दबावों के बीच अपनी रोजी-रोटी बचाने में कामयाब हुए हैं। इससे इतर पत्रकारों के लिए जो वास्तविक खतरे हैं, उनका अहसास रॉयटर्स के वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी की अफगानिस्तान में सुरक्षा बलों और तालिबान लड़ाकों के बीच संघर्ष में हुई मौत से होता है।
अफगानिस्तान उन देशों की सूची में है, जहां पत्रकारों की जिंदगी वैसे भी खतरे में बताई जाती रही है। दानिश ऐसे खतरों से अनजान नहीं रहे होंगे। रोहिंग्या शरणार्थी संकट की कवरेज के लिए फीचर फटॉग्रफी का पुलित्जर सम्मान (2018) अपने नाम करने वाले दानिश अफगानिस्तान से पहले इराक की जंग, नेपाल भूकंप और हॉन्गकॉन्ग के विरोध प्रर्दशनों को कवर कर चुके थे।
पत्रकार दानिश सिद्दीकी
पत्रकार जो तमाम खतरे पेशागत मजबूरियों के चलते उठाता है, वैसी चुनौतीपूर्ण स्थितियां अन्य नौकरियों में या तो होती ही नहीं या फिर उनकी स्पष्ट व्याख्या और उपचार की व्यवस्था पहले से की जाती है। किसी निर्माणाधीन बिल्डिंग में साइट इंजीनियर से लेकर सामान्य कर्मचारियों और मजदूरों तक को वे जरूरी उपकरण दिए जाते हैं, जिनसे उनकी जान बच सकती है। फिर भी कोई दुर्घटना होती है तो नौकरी की शर्तों के तहत उनके उपचार, मुआवजे और पुनर्वास आदि का पूरा इंतजाम होता है। पत्रकारिता के साथ ऐसा नहीं होता।
करीब 25 बरस पूर्व उत्तराखंड आंदोलन के दौरान जब मैं देहरादून से प्रकाशित एक दैनिक में काम कर रहा था, एक ऐसा मौका आया जब मेरे कई पत्रकार साथियों को पुलिस की लाठियां खानी पड़ीं। कई के हाथ-पांव टूटे और महीनों बिस्तर से लगे रहना पड़ा। यह ऐसा खतरा था, जिसके बारे में हमें पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में बताया-सिखाया नहीं गया था। बाद में ऐसे कई अन्य जोखिमों का पता लगा, लेकिन इन सबसे बीच यह अहसास भी जिंदा रहा कि ऐसे ज्यादातर खतरे पत्रकारिता के अलिखित कायदों का जरूरी हिस्सा हैं। यह भी मालूम पड़ा कि ये खतरे पत्रकार इसलिए उठाते हैं क्योंकि उनके लिए यह महज नौकरी नहीं, बल्कि उनके जुनून (पैशन) का हिस्सा है।
कोरोना काल की ही बात करें तो दफ्तर आने-जाने या रिपोर्टिंग करने के क्रम में वायरस की चपेट में आकर सैकड़ों पत्रकारों ने जान गंवाई है। इंस्टियूट ऑफ पर्सेप्शन स्टडीज के मुताबिक अप्रैल, 2020 से मई, 2021 के बीच देश में 238 पत्रकार रिपोर्टिंग की पेशागत विवशता के कारण कोरोना की चपेट में आने से जान गंवा बैठे। नेटवर्क ऑफ विमिन इन मीडिया की रिपोर्ट कहती है कि ऐसी मौतों की संख्या कम से कम 300 है। इसी साल अप्रैल में हर दिन औसतन तीन और मई में औसतन हर दिन चार पत्रकार कोरोना के कारण जान से हाथ धो बैठे। ये आंकड़े ज्यादातर शहरों के नामी मीडिया संगठनों में काम करने वाले पत्रकारों के हैं। गांव-कस्बों में और पे-रोल पर नहीं आने वाले छिटपुट मीडिया संस्थानों में काम करने वाले और स्वतंत्र काम करने वाले शायद कई सौ पत्रकारों का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलेगा।
इन मौतों का संज्ञान लेते हुए प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने पिछले साल सितंबर से इस साल अप्रैल तक सभी राज्य सरकारों को चिट्ठियां भेजकर उनसे अपील की थी कि पत्रकारों को फ्रंटलाइन कोरोना वॉरियर्स माना जाए। तब कहीं जाकर कुछ राज्य सरकारों ने उन्हें कोरोना वॉरियर्स माना और मृत पत्रकारों के परिवारों की मदद शुरू की।
ज्यादा चिंता इसकी है कि गांव-कस्बों में अपनी जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता का दायित्व निभाते हुए मौत को गले लगाने वाले पत्रकारों के नाम भी हम शायद कभी न जान पाएं। जन-सरोकारों और देश-दुनिया की सारी फिक्रें अपने सिर ओढ़ने वाले लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को ढहने से बचाना है तो किसी न किसी को कुछ चिंता पत्रकार-कौम की करनी होगी।
(लेखक टाइम्स स्कूल ऑफ मीडिया, बेनेट यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं
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