उमेश चतुर्वेदी
पिछली सदी के नब्बे के दशक में बहुजन समाज पार्टी की नेता ने एक इंटरव्यू में महात्मा गांधी पर ऐसी टिप्पणी की थी, जिसे यहां दोहराना कतई उचित नहीं होगा। उस वक्त बहुजन समाज पार्टी के निशाने पर तिलक-तराजू और तलवार थे। लेकिन अब वही बहुजन समाज पार्टी उस तिलक को माथे की शोभा बढ़ाने की तैयारी में है, जिसे वह खुलेआम निशाने पर लेने की वकालत करती रही है।
अयोध्या में 23 जुलाई को प्रस्तावित बहुजन समाज पार्टी के ब्राह्मण सम्मेलन के गहरे निहितार्थ हैं। कांसीराम ने बहुजन समाज की जो राजनीति शुरू की थी, उसमें हिंदुत्व के प्रतीकों पर परोक्ष प्रहार भी था। हालांकि मायावती इन अर्थों में कांसीराम से थोड़ी अलग रही हैं। उन्होंने हिंदुत्व या सनातन परंपरा से दूरी दिखाने की कभी आक्रामक कोशिश नहीं की। यह बात और है कि राम मंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के पहले तक बहुजन समाज पार्टी भी राम मंदिर आंदोलन को हिंदुत्ववादी मानती रही है। ऐसे में अगर वही मायावती ब्राह्मण सम्मेलन के लिए राम की जन्मभूमि अयोध्या को चुनती हैं तो स्पष्ट है कि इसके भी राजनीतिक निहितार्थ हैं।
अल्लामा इकबाल तो राम को इमाम-ए-हिंद कह चुके हैं। बहरहाल मायावती ने अयोध्या को ब्राह्मण सम्मेलन के लिए चुनकर साफ संदेश देने की तैयारी में हैं, यानी वे भी राम के साथ हैं, राम मंदिर के प्रति उनकी पार्टी का भी रवैया सकारात्मक है। वैसे हाल ही में उन्होंने एक बयान में कहा भी है कि ब्राह्मणों को सोचना चाहिए कि वे कब तक भारतीय जनता पार्टी पर भरोसा करते रहेंगे। वे ब्राह्मणों को यह संदेश भी देना चाहती हैं कि भले ही वे आज भारतीय जनता पार्टी के कोर वोटर हों, लेकिन ब्राह्मण समुदाय के उसका वाजिब हक भारतीय जनता पार्टी नहीं दे पा रही है।
साल 2007 के विधानसभा चुनावों में भी उन्होंने ब्राह्मणों को जोड़ने की सफल कोशिश की थी। तब उनकी पार्टी ने कुछ ही साल पुराने आक्रामक नारे की बजाय दूसरा नारा चुना था, हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है। हाथी बहुजन समाज पार्टी का चुनाव निशान है, उसके बहाने बहाने बहुजन समाज पार्टी ने ब्राह्मणों को भी जोड़ दिया था। इसका नतीजा भी उनके पक्ष में रहा। तब उसे 2002 के विधानसभा चुनाव की तुलना में 7.1 प्रतिशत वोटों की बढ़त मिली थी। तब बहुजन समाज पार्टी को 30.43 प्रतिशत वोटों के साथ 206 सीटें हासिल हुई थीं और 1991 के बाद उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बनी। लेकिन इसके ठीक बाद यानी 2012 में विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को दूसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा। तब उसे 2007 के मुकाबले 4.52 प्रतिशत वोटों की कमी के साथ 25.91 प्रतिशत वोट मिला था और वह महज 80 सीटें हासिल करके सत्ता से बाहर हो गई थी। तब माना गया था कि ब्राह्मणों ने बहुजन समाज पार्टी का साथ छोड़ दिया था।
मायावती ही नहीं, इन दिनों कांग्रेस भी ब्राह्मण समुदाय पर कम से कम उत्तर प्रदेश में डोरे डालने की कोशिश कर रही है। अतीत में कांग्रेस का उत्तर भारत में सत्ता समीकरण ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम समुदाय की बुनियाद पर टिका हुआ था। मायावती भी इसी समीकरण को साधने की कोशिश में हैं। इसकी वजह यह है कि उत्तर प्रदेश के सवर्ण समुदाय में सबसे बड़ी संख्या ब्राह्मणों की मानी जाती है। एक अनुमान के मुताबिक उत्तर प्रदेश के 16 प्रतिशत वोटर सवर्ण समुदाय से हैं, जिनका आधा हिस्सा ब्राह्मणों का है। चूंकि जाति के आधार पर पूरी राजनीति केंद्रित हो गई है, इसलिए जब भी चुनाव या राजनीतिक वर्चस्व का संदर्भ आता है, जातियों का गणित उन दिनों दोहराया जाने लगता है। जाति आधारित जनगणना आजादी के पहले 1931 में ही हुई थी, उसके बाद कभी नहीं हुई। इसलिए जाति आधारित गणना बता पाना आसान नहीं है।
उत्तर भारत में कहा जाता रहा है कि जिसे गंगा किनारे के ब्राह्मणों का समर्थन मिलता है, वहीं देश या अपने प्रांत पर राज करता रहा है। सवर्ण समुदाय में सबसे ज्यादा संख्या वाले ब्राह्मण समुदाय को भारतीय जनता पार्टी से अलग करने की कोशिश पिछले कुछ महीनों से तेज हो गई है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भले ही संन्यासी हैं, लेकिन उन्हें क्षत्रिय बताने की खूब कोशिश हुई। राजनीति किस कदर बदल गई है, इसे इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि जब साल 2020 में कानपुर के बिकरू गांव के विकास दुबे को एनकाउंटर में पुलिस ने मार गिराया था तो उसे सरकार के ब्राह्मण विरोधी चेहरे के रूप में विपक्षी राजनीतिक दलों की ओर से कोशिश हुई। इसमें कांग्रेस और समाजवादी पार्टी भी शामिल रही। ब्राह्मण वोट कहीं छिटक ना जाएं, इसलिए भाजपा कभी उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा का नाम आगे करती है तो कभी कांग्रेस से आए जितिन प्रसाद को ब्राह्मण नेता के तौर पर प्रस्तुत करती है।
बेशक ब्राह्मण समुदाय का समर्थन अब भी भारतीय जनता पार्टी के साथ दिख रहा है। लेकिन उसके कुछ हलकों में यह शंका घर करने लगी है कि उसे वाजिब राजनीतिक समर्थन और हिस्सेदारी नहीं मिल रही है। वैसे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पहले से ही निस्तेज मान लिया गया है, इसलिए मायावती की उम्मीदें बढ़ी हुई हैं।
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8 घंटे पहले
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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