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लेखिकाः नीलम महाजन सिंह
अगले साल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होंगे। इनमें से केवल पंजाब में कांग्रेस की सरकार है। शेष छह राज्यों में बीजेपी की। इन राज्यों में बीजेपी पर अच्छे प्रदर्शन का दबाव बना हुआ है। उधर, कोरोना महामारी के चलते पिछले डेढ़ साल में देश की आर्थिक हालत खराब बनी हुई है, बेरोजगारी बढ़ रही है और सरकार के आर्थिक पैकेजों का असर भी जमीन पर नहीं दिखा है।
कठिन होती राह
उत्तर प्रदेश में चुनावी तैयारी के नाम पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं की ताबड़तोड़ बैठकें हुईं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हटाने की हवा चली। मोदी के कथित चहेते पूर्व आईएएस अधिकारी अरविंद कुमार शर्मा को योगी सरकार में सेट करने को लेकर खींचतान भी हुई। बीजेपी को पता है कि अगर अगले साल उत्तर प्रदेश में उसकी सरकार नहीं बनी तो केंद्र में लगातार तीसरी बार सत्ता में आने की राह भी कठिन हो जाएगी। ऐसे में बीजेपी उत्तर प्रदेश को लेकर संघ की शरण में गई है। यूं तो बीजेपी के पीछे संघ की शक्ति पार्टी की स्थापना के वक्त से ही है, पर पार्टी ने इसे कभी खुल कर स्वीकारा नहीं। लेकिन हाल के वर्षों में बीजेपी और संघ के बीच की झीनी परत तेजी से दरकी है। सरकार में अधिकांश राजनीतिक और अहम प्रशासनिक नियुक्तियां संघ की हामी के बाद ही हो रही हैं। जेपी नड्डा को बीजेपी अध्यक्ष बनाए जाने पर भी संघ की सहमति थी।
RSS के नागपुर स्थित मुख्यालय में स्वयंसेवकों का प्रशिक्षण (फोटोः BCCL)
जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे, तब मैंने दूरदर्शन के लिए तत्कालीन सरसंघचालक प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ ‘रज्जू भैया’ का साक्षात्कार किया था। उन्होंने बाद में मेरा परिचय केएस सुदर्शन से करवाया। सुदर्शन जी के जरिये मैंने संघ को समझा। लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, केदारनाथ साहनी का संघ से करीबी रिश्ता रहा। बीजेपी की सफलता में संघ ने शुरू से सार्थक भूमिका निभाई। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला सहित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू संघ के पसंदीदा हैं। वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और गृह मंत्री के चुनाव में भी संघ की अहम भूमिका रही है। संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत, सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल और डॉ. इंद्रेश कुमार अभी संघ और सरकार में समन्वय की भूमिका निभा रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि इससे पहले बीजेपी के केंद्रीय मंत्रियों और नेताओं ने संघ से बातचीत नहीं की या नीतिगत मुद्दों पर उनसे सलाह-मशविरा नहीं किया, लेकिन ऐसा पहले कुछ नेताओं के स्तर पर ही होता था। वरिष्ठ बीजेपी नेता संघ की बैठकों में भाग लेते रहे हैं और वहां होने वाली चर्चाओं को सरकार के कार्यक्रमों में समन्वित करने का प्रयास किया जाता रहा है। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी संघ के नेताओं से मिलते थे। उन्होंने अपनी सरकार में उन लोगों को प्रधानता दी, जो संघ पृष्ठभूमि के नहीं थे। जैसे कि ब्रजेश मिश्रा, जसवंत सिंह या यशवंत सिन्हा। इससे आरएसएस खुश नहीं था।
बीजेपी जब 1998 में पहली बार केंद्र में सत्ता में आई, तो जसवंत सिंह को वित्त मंत्री बनाने के वाजपेयी के फैसले को शपथ ग्रहण के कुछ घंटे पहले निरस्त कर दिया गया था। यह संघ के दबाव में किया गया। एनडीए सरकार में लालकृष्ण आडवाणी को उप-प्रधानमंत्री के रूप में, संघ के दबाव में ही पदोन्नत किया गया। हालांकि बाद में पाकिस्तान यात्रा के दौरान जब आडवाणी ने मोहम्मद अली जिन्ना की प्रशंसा की तो संघ ने उन्हें समर्थन नहीं दिया। संघ की तरफ से उन पर इतना दबाव पड़ा कि उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा।
जाहिर है कि संघ और बीजेपी के बीच अटूट रिश्ता है। बीजेपी और इसके पूर्व अवतार, भारतीय जनसंघ की कल्पना आरएसएस के राजनीतिक मोर्चे के रूप में हुई थी। वास्तव में जनता पार्टी में टूट, जनसंघ और आरएसएस की दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर ही हुई थी। पचास के दशक से ही जनसंघ या बीजेपी का संगठन सचिव आरएसएस के कार्यकर्त्ता रहे हैं। संघ बीजेपी के संरक्षक और सलाहकार की भूमिका निभा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संघ की भावना के प्रति सचेत हैं और संघ की ओर से भी उनकी कई पहल को समर्थन हासिल है। इस संदर्भ में पाकिस्तान के साथ हाल में सीजफायर और सीमा पर शांति बहाली की कोशिशों का जिक्र किया जा सकता है। काफी समय से जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान सीमापार से गोलाबारी करता आया था, जिसका भारतीय सेना ने मुंहतोड़ जवाब दिया। लेकिन कुछ अरसा पहले दोनों देशों ने सीमा पर शांति बहाली का ऐलान किया। यह तय हुआ कि गोलाबारी बंद की जाएगी। भारत और पाकिस्तान की यह पहल सफल रही है। आरएसएस ने पाकिस्तान को लेकर केंद्र की बीजेपी सरकार के इसकदम को सहमति दी है।
कवच बना रहेगा
अब खुलेआम पार्टी और संघ का मिश्रण हो चुका है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के महत्वपूर्ण पदों पर संघ के पसंदीदा लोगों को नियुक्त किया जाता है। ‘सरकार क्या कर रही है और क्या नहीं कर रही’ के मुद्दे पर संघ प्रमुख की अध्यक्षता में कुछ साल पहले तीन दिनों तक मूल्यांकन बैठक हुई थी, जिसमें संघ के आला नेताओं के साथ लगभग पूरा मंत्रिमंडल शामिल हुआ था। अब व्यक्तिगत स्तर पर संघ नेतृत्व का मार्गदर्शन हासिल करने या फिर प्रधानमंत्री द्वारा संघ से मार्गदर्शन लेने की बात को आपत्तिनजक नहीं समझा जाता। आगे भी बीजेपी का कवच संघ बना रहेगा। देश में कांग्रेस की राजनीतिक ताकत बेशक कमजोर है, लेकिन बीजेपी के सामने सियासी चुनौतियां आती रहेंगी। अगले साल जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, वह उसके लिए बड़ा इम्तहान होगा। ऐसे में बीजेपी के लिए संघम् शरणम् गच्छामि की स्थिति बनी रहेगी।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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