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विस्थापन के नैतिक व मानवीय प्रश्न


पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली की सीमा से सटे फरीदाबाद में अरावली की गोदी में बसी विशाल बस्ती में जहां कुछ दिनों पहले तक जिंदगी की रवानगी थी वहां आज वीरानी, आशंका व भय का आलम है। खोरीगांव के दस हजार घरों में रहने वाले करीब एक लाख लोग सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सड़क पर आ गये हैं। कोर्ट के आदेश पर्यावरण चुनौती और कानून के हिसाब से भले ही सटीक हैं, लेकिन भरी बरसात में बीस हजार बच्चों के साथ सीधे सड़क पर आ गए लोगों के अनिश्चित भविष्य के सवाल भी जवाब मांगते हैं! आखिर जिस तंत्र की लापरवाही से यह कथित अवैध कब्जे का साम्राज्य खड़ा होता है, वह ऐसी मानवीय त्रासदी में निरापद कैसे रह जाता है।
शायद ही देश में इतना बड़ा अतिक्रमणरोधी अभियान कभी चला होगा, जिसमें 35 धार्मिक स्थल, पांच स्कूल, दो अस्पताल, बड़ा-सा बाजार सहित समूची बस्ती नेस्तनाबूद होगी, वह भी विस्थापितों के लिए बगैर किसी वैकल्पिक व्यवस्था के। निस्संदेह, समूची कार्रवाई उसी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हो रही है, जिसके कई ऐसे आदेशों पर पहले राज्य सरकारें कुंडली मार कर बैठी रही हैं। विचारणीय है कि यदि देश से सरकारी जमीन से सभी अवैध कब्जे हटा दिए जाएं तो भारत का स्वरूप कैसा होगा? आंचलिक क्षेत्रों की बात तो दूर की, राजधानी में ही अवैध-कॉलोनियों को नियमित करने, झुग्गी बस्ती बसाने व विस्थापन पर नए स्थान पर जमीन देने, मुआवजा के तमाशे सालों से सरकार करती रही हैं।
खोरीगांव अरावली पहाड़ की तली पर अस्सी के दशक में तब बसना श्ाुरू हुआ, जब यहां खनन श्ाुरू हुआ। पहले खदानों में काम करने वाले मजदूरों की कुछ झुग्गियां बसीं, फिर इसका विस्तार लकड़पुर गांव से दिल्ली की सीमा तक हुआ। फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अरावली में खनन पाबंद कर दिया गया। फिर बस्ती मेहनत-मजदूरी करने वालों से आबाद होती चली गई। अधिकांश उ.प्र.-बिहार के श्रमिक। पावर आफ अटार्नी पर गरीब-श्रमिक जमीन खरीदते रहे और अपनी सारी कमाई लगा कर अधपके ढांचे खड़े करते रहे। फरीदाबाद-गुरुग्राम सड़क आने के बाद सारा इलाका नगर निगम क्षेत्र में अधिसूचित हो गया। इस एक लाख आबादी की रिहायश भले ही हरियाणा में हो लेकिन दिल्ली से तार खींच कर यहां घर-घर बिजली दी गई। बाकायदा साढ़े तेरह रुपये यूनिट की वसूली ठेकेदार करते थे। पानी के लिए टैंकर का सहारा। हर घर में बड़ी-बड़ी टंकियां थीं, जिसमें एक हजार रुपये प्रति टैंकर की दर से माफिया पानी भरता था। वहीं पीने हेतु बीस रुपये की बीस लीटर वाली बोतल की घर-घर सप्लाई की व्यवस्था यहां थी। यहां हर महीने अकेले बिजली-पानी का कारोबार बीस करोड़ से कम का न था। इतने बड़े व्यापार तंत्र का संचालन बगैर सरकारी मिलीभगत से हो नहीं सकता। यहां हर एक बाशिंदे के पास मतदाता पहचान पत्र हैं और बाकायदा चार मतदाता केंद्र स्थापित किए जाते थे।
असल में खोरी-लकड़पुर की कोई 100 एकड़ जमीन नगर निगम की है। पंजाब भूसंरक्षण अधिनियम-1900 के तहत यह जमीन वन विकसित करने के लिए अधिसूचित है और यहां कोई भी गैर-वानिकी कार्य वर्जित है। अरावली क्षेत्र से अवैध कब्जे हटाने के लिए दायर एक जनहित याचिका पर फरवरी और अप्रैल, 2020 में सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार को खोरी का अवैध कब्जा हटाने के आदेश दिये थे लेकिन राज्य सरकार जनाक्रोश और हिंसा के डर की आड़ में अतिक्रमण हटाने से बच रही थी। सात जून, 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने फरीदाबाद के उपायुक्त और पुलिस प्रमुख को अतिक्रमण न हटा पाने की दशा में व्यक्तिगत जिम्मेदार निरूपित करते हुए छह हफ्ते में आदेश के पालन के आदेश दिए। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कह दिया कि जमीन पर कब्जा कर गैरकाूननी काम करने वालों को वह कोई छूट नहीं दे सकती।
इसके बाद खोरी खंडहर हो रहा है। यहां की बिजली काट दी गई। कई लोग खुद ही मकान तोड़ रहे हैं। हरियाणा सरकार ने यहां से उजड़े लोगों को डबुआ में बने ईडब्ल्यूएस फ्लैट देने की घोषणा की है, लेकिन यह सरल नहीं है। एक तो मतदाता सूची में नाम हो, दूसरा सालाना आय साढ़े तीन लाख से कम का प्रमाणपत्र और तीसरा कि याची का टूटा मकान हरियाणा की सीमा में हो, जान लें कि इनमें आधे मकान दिल्ली-सीमा में हैं। यहां कई प्रदर्शन, धरने, हिंसा में भी तीन लोग आत्महत्या कर चुके हैं, आखिर यहां से उजाड़े गए एक लाख लोग जाएं कहां? इतनी बड़ी आबादी के लिए तत्काल घर तलाशना, वह भी अपने कार्य-स्थल के आसपास, लगभग असंभव है। हालांकि, अदालत व प्रशासन से यह उम्मीद जरूर थी कि यहां जमीन, पानी व बिजली बेचने वालों पर न केवल आपराधिक मुकदमे हों, बल्कि उनकी संपत्ति से विस्थापित लोगों को आवास मुहैया करवाया जाए।
खोरी के इतने बड़े विस्थापन पर राजनीतिक रूप से कोई बड़ा बवाल न होना जताता है कि इतनी बड़ी बस्ती को बसा कर अपने महल खड़े करने वालों में हर दल के लोग समान भागीदार होते हैं। वैसे यह भी जानना जरूरी है कि देश में कुल वन भूमि के दो प्रतिशत अर्थात‍् 13 हजार वर्ग किलोमीटर पर अवैध कब्जे होने की बात केंद्र सरकार ने एक ‘सूचना के अधिकार’ की अर्जी में स्वीकार की है। इससे पहले पांच जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर बने धार्मिक स्थलों की सूची मांगी थी और सन‍् 2016 में आदेश दिया था कि ऐसे बीस लाख से ज्यादा कब्जे हटाए जाएं। आदेश को पांच साल से अधिक हो गया। इसका क्रियान्वयन हुआ नहीं।
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9 घंटे पहले
8 घंटे पहले
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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