शमीम शर्मा अपने छोटे से बच्चे की शरारत से तंग आकर थप्पड़ दिखाते हुए जब मां ने पूछा कि दिख रहा है ना कि ये क्या है तो बच्चा बाल सुलभता से बोला-ओह मम्मी! आपको इतना भी नहीं पता कि यह हाथ है। मां बोली-यह हाथ नहीं थप्पड़ है, अगर एक लग गया ना तो एक पल में सीधा हो जायेगा और होश ठिकाने आ जायेंगे। बच्चा बोला-मां! इस हाथ से तो आप मुझे थपकी दे-देकर सुलाती हो तो थप्पड़ कैसे मारोगी? जवाब सुनते ही मां की अंगुलियां बच्चे के बालों में घूमने लगीं और मां के होंठों ने उसके मस्तक पर चुम्बन की टीका लगा दिया। दरअसल महिलायें बहुत जल्दी समर्पण कर देती हैं। बच्चा हो या पति, वे उनके सामने नतमस्तक हो जाती हैं। इसी समर्पण भाव के कारण उसने स्वीकार लिया कि पति परमेश्वर होता है और बच्चे में वह अपनी पूरी दुनिया की झलक देख लेती है। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि ब्राजील में राष्ट्रपति को अपदस्थ करने की मुहिम चल रही है या अमेरिका में ट्रंप की भावी योजनायें क्या हैं। न ही वह चांद पर जाने की खोज करने में ऊर्जा गंवाती है और न ही वह रोबोट तैयार करती जो घर-बाहर के कामों का दायित्व संभाल ले। न ही उसे महात्मा बुद्ध की तरह घर छोड़कर संन्यासी होने की सूझती है और न ही कृष्ण की भांति वह युद्ध की महिमा का गान कर सकती है। आक्रामक ड्रोन, मिसाइल और बम का तो उसे ख्याल भी नहीं आता। स्त्री स्वभाव से ही पर्दे को पसन्द करती है। उसके दिमाग में यह भाव तक नहीं आता कि वह किसी शिल्पकार की तरह नग्न मर्दों की मूर्तियां उकेरे या नामी चित्रकार की तरह पुरुषों के नग्न रूप को रंग दे। उसकी दृष्टि में पर्दा सिर्फ वह नहीं है जो वक्ष ढकने अथवा घूंघट निकालने के काम आता है। वह अपनी संतान से लेकर पति तक के अवगुणों पर पर्दा डालने में जुटी रहती है। अपने अभाव और तनाव को ढांपने में जीवन बिता देती है। तिड़के हुए कप-प्लेट हों या मसालेदानी की टूटी हुई एकाध डिबिया, वह उन्हें इस करीने से रखती है कि दरारों पर किसी की निगाह ही न पड़े। और साथ ही वह रिश्ते-नातों की चादर को रफू करने में एक मानवीय कारीगर होने का हस्ताक्षर करती है। 000 एक बर की बात है अक रामप्यारी बहनजी नैं क्लास मैं सवाल पूच्छया-न्यूं बताओ माणस अर जानवरां मैं के भेद सै। नत्थू तैड़ दे सी बोल्या-जी गधे का बच्चा बड़ा होन पै गधा बनै अर उल्लू का उल्लू। पर आदमियां के टाब्बर गधे भी बण सकै हैं, अर उल्लू भी। खबर शेयर करें 2 घंटे पहले 46 मिनट पहले 44 मिनट पहले दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है। ‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया। खबरों के लिए सब्सक्राइब करें