The Path Of Development Is The Concern Of The Last Person -

The Path Of Development Is The Concern Of The Last Person - अंतिम व्यक्ति की चिंता ही विकास का रास्ता


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भारत के लोगों की लोकतंत्र के प्रति आस्था बहुत गहरी है, यह बार-बार प्रमाणित हुआ है। इससे भारत का सभ्यतामूलक आग्रह पुख्ता हुआ है। अब भारत अपने जन के प्रति आत्मविश्वास रखते हुए दुनिया में अपनी जगह बनाने की ओर बढ़ रहा है। अब उपनिवेशवाद, खोखले समाजवाद और भारत विभाजन से देश का युवा उबर चुका है, वह अधिक जानकार और आत्मविश्वास से भरा है। भारतीय गणतंत्र का सफर मिला-जुला रहा है। बहुत से ऐसे काम हैं, जो हमारी प्राथमिकता में होने चाहिए थे, पर नहीं हुए। जमीन, जल, जंगल और जानवर की देखभाल होनी चाहिए थी। जलस्तर नहीं घटना चाहिए था। वनाच्छादन नहीं घटना चाहिए था, भूमि का क्षरण नहीं होना चाहिए था। 
हजारों-हजार साल से खेती यहां की परंपरा है, तो जमीन की उर्वरता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ। उसी प्रकार जन स्वास्थ्य व शिक्षण पर ध्यान रखना था। पर समान शिक्षा के लक्ष्य से हम दूर होते चले गए। राजनीति में बाहुबल और धनबल का विकार घुसा, इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था प्रदूषित हुई। राजनीति में न सिर्फ अवसरवाद बढ़ा है, बल्कि वैचारिकता में कमी आई है। हालांकि काफी कुछ किया जा चुका है, पर काफी कुछ होना बाकी है। संस्कृत समेत अन्य भारतीय भाषाओं को योग्य स्थान मिलता, तो जन के साथ अनुकूल स्पंदन होता। उसके लिए जरूरी दो-तीन बातें थीं, एक यह सोचना कि प्रकृति का संपोषण ही विकास का क,ख,ग है। दूसरा यह समझना कि देश के अंतिम व्यक्ति की चिंता ही विकास का रास्ता है। तीसरी अपने देश के जन की नीयत व क्षमता के बारे में भरोसा करना। इसमें हम कम पड़े हैं। नहीं तो हम और अच्छा कर सकते थे। हमें भारत को भारत के नजरिये से देखकर, जन के तासीर, तेवर जरूरत के हिसाब से व्यवस्था बनानी थी, जिसमें हम चूके हैं।
राजनीतिक संप्रभुता के लिए पिछले दो हजार वर्ष से जो प्रयास होने थे, वह चाणक्य, छत्रपति शिवाजी जैसे कुछ विभूतियों तक सीमित रह गए। राजा कालस्य कारणम्- यह समझकर राज्य व्यवस्था और कैसे बेहतर होती, पूरे देश में राजनीतिक जागृति और उस पर देश की आम सहमति कैसे बेहतर होती, इसमें हम कम पड़े हैं। उसके लिए जो उपाय है, वह है भाषा- संस्कृत, हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने से जन में आत्मविश्वास आता, संकल्प गहरा होता। हम इससे चूक गए और अनावश्यक अंग्रेजी को सिर पर लादे चल रहे हैं। व्यक्ति और व्यवस्था, दोनों समाज संचालन में महत्वपूर्ण हैं। व्यक्ति का नैतिक बल अधिक से अधिक ऊंचा हो और औसत नैतिक बल का व्यक्ति भी चाहे तो सीधा चल सके, ऐसी व्यवस्था हो। भारतीय समाज पारिवारिक व्यवस्था का पालन करता है, यह संबंधों का समाज है। कानून व्यवस्था में बड़ों का लिहाज और आंख की शर्म से जो योगदान होता, वह पुलिसिया व्यवस्था से ज्यादा व्यापक, गहरा और महत्वपूर्ण होता। इसलिए समाजिक पूंजी और सांस्कृतिक परंपराओं का ध्यान रखकर देश के संविधान में बहुत-सी चीजें होनी चाहिए थीं, जो नहीं हैं। विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका में असंतुलन हो रहा है। सिविल सेवाओं के प्रशिक्षण में विषयवस्तु व तरीके में जितना भारतीय संदर्भ आना चाहिए था, नहीं हुआ। भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए था, वह भी नहीं हुआ। गैर-ब्रिटिश, गैर-यूरोपीय स्रोतों से आधार बनाकर इतिहास को देखते तो दृश्य एकदम अलग नजर आता। इन सबका संविधान पर असर पड़ा है। लेकिन जितना है, उसका ठीक से उपयोग होना चाहिए।
भारतीय मूल्य में देखें, तो परिवार की व्यवस्था के लिए संविधान ने क्या उपाय किए? परिवार को आर्थिक इकाई के नाते कहां पहचान दी है? जो संविधान की दिशा है, उसमें तो परिवार के टूटने के प्रावधान हैं। भारतीय संदर्भ उसमें कहां हैं? इसी तरह समाज संचालन के लिए धर्मसत्ता की विकृत छवि दी गई है, जबकि समाज चलता है परंपरा से, सद्गुरुओं से। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और नारीवाद यूरोपीय जगत के संदर्भ में था। इसीलिए भारत को भारत के नजरिये से देखने की जरूरत है। संविधान में बहुत सारी चीजें करने लायक हैं। जैसे आरक्षण की व्यवस्था, यह वंचित समाज के अंतिम आदमी तक पहुंचे कैसे, इसे निश्चित नहीं किया गया। इससे समानता के बजाय सामाजिक एकता और न्याय का संतुलन बिगड़ गया। सामाजिक न्याय जितना चाहिए, वह हासिल नहीं हुआ और सामाजिक एकता खंडित हो गई। लेकिन इस पर जो बहस चलती है, वह है कि इसे इतने दिन तक रखें। जब पूरा समाज एक है, तो आरक्षण का लाभ उस वंचित तक पहुंचे कैसे,  इस पर चर्चा होनी चाहिए। वह नहीं हुई। 
इसलिए मैं मानता हूं कि संविधान में यथावश्यक सुधार होने चाहिए। संविधान के प्रावधानों का सही उपयोग किया जाना चाहिए, ताकि समाज की नैतिक शक्ति बढ़े,  और लोकतांत्रिक उपकरण मजबूत बनें। देश में एक देश एक चुनाव जैसे प्राथमिकता के कई विषय है। किसी एक याचिका पर लाखों लोग हस्ताक्षर कर दें, तो उस पर संसद में बहस होनी चाहिए। कहने को पिटीशन कमेटी बनी हुई है, पर बहस नहीं होती है। उसी तरह कुछ मुद्दों पर बात हो, तो जनमत संग्रह का प्रावधान नहीं है, जबकि वह होता, तो उपयोगी होता। आजादी के पहले और उसके बाद भी तीन धाराएं थी। आजादी के बाद देश में 1950 से 1980 तक समाजवाद का बोलबाला रहा। 1980 के 2010 तक धर्मनिरपेक्षवाद हावी रहा। 2010 के बाद हिंदुत्व की अलग-अलग छटाएं उभरी हैं। ऐसे समय में जब हम 72वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं, कृषि कानूनों को लेकर जो भी घटित हो रहा है, वह अत्यंत दुखद व दुर्भाग्यपूर्ण है। जब आंदोलन के सफल होने के लिए पंजाब के गुरुद्वारों में अरदास हो रही है, ऐसे समय में उन पर खालिस्तानी होने का आरोप लगाना बेहद दुखद है। सरकार व आंदोलनकारियों के बीच इस मुद्दे को लेकर खाई चौड़ी होती जा रही है। संवाद में विश्वास ही मूल होता है। इसमें सरकार की जिम्मेदारी आधिक है। सरकार पहल करे और एमएसपी के बारे में गारंटी देते हुए कानून लाए, ताकि वातावरण सौहार्दपूर्ण बने। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार की यह जिम्मेदारी है।
 
भारत के लोगों की लोकतंत्र के प्रति आस्था बहुत गहरी है, यह बार-बार प्रमाणित हुआ है। इससे भारत का सभ्यतामूलक आग्रह पुख्ता हुआ है। अब भारत अपने जन के प्रति आत्मविश्वास रखते हुए दुनिया में अपनी जगह बनाने की ओर बढ़ रहा है। अब उपनिवेशवाद, खोखले समाजवाद और भारत विभाजन से देश का युवा उबर चुका है, वह अधिक जानकार और आत्मविश्वास से भरा है। भारतीय गणतंत्र का सफर मिला-जुला रहा है। बहुत से ऐसे काम हैं, जो हमारी प्राथमिकता में होने चाहिए थे, पर नहीं हुए। जमीन, जल, जंगल और जानवर की देखभाल होनी चाहिए थी। जलस्तर नहीं घटना चाहिए था। वनाच्छादन नहीं घटना चाहिए था, भूमि का क्षरण नहीं होना चाहिए था। 
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राजनीतिक संप्रभुता के लिए पिछले दो हजार वर्ष से जो प्रयास होने थे, वह चाणक्य, छत्रपति शिवाजी जैसे कुछ विभूतियों तक सीमित रह गए। राजा कालस्य कारणम्- यह समझकर राज्य व्यवस्था और कैसे बेहतर होती, पूरे देश में राजनीतिक जागृति और उस पर देश की आम सहमति कैसे बेहतर होती, इसमें हम कम पड़े हैं। उसके लिए जो उपाय है, वह है भाषा- संस्कृत, हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने से जन में आत्मविश्वास आता, संकल्प गहरा होता। हम इससे चूक गए और अनावश्यक अंग्रेजी को सिर पर लादे चल रहे हैं। व्यक्ति और व्यवस्था, दोनों समाज संचालन में महत्वपूर्ण हैं। व्यक्ति का नैतिक बल अधिक से अधिक ऊंचा हो और औसत नैतिक बल का व्यक्ति भी चाहे तो सीधा चल सके, ऐसी व्यवस्था हो। भारतीय समाज पारिवारिक व्यवस्था का पालन करता है, यह संबंधों का समाज है। कानून व्यवस्था में बड़ों का लिहाज और आंख की शर्म से जो योगदान होता, वह पुलिसिया व्यवस्था से ज्यादा व्यापक, गहरा और महत्वपूर्ण होता। इसलिए समाजिक पूंजी और सांस्कृतिक परंपराओं का ध्यान रखकर देश के संविधान में बहुत-सी चीजें होनी चाहिए थीं, जो नहीं हैं। विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका में असंतुलन हो रहा है। सिविल सेवाओं के प्रशिक्षण में विषयवस्तु व तरीके में जितना भारतीय संदर्भ आना चाहिए था, नहीं हुआ। भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए था, वह भी नहीं हुआ। गैर-ब्रिटिश, गैर-यूरोपीय स्रोतों से आधार बनाकर इतिहास को देखते तो दृश्य एकदम अलग नजर आता। इन सबका संविधान पर असर पड़ा है। लेकिन जितना है, उसका ठीक से उपयोग हो

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