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राजकुमार सिंह
भारत के लिए ओलंपिक खेलों में इससे बेहतर शुरुआत क्या हो सकती थी? वैश्विक महामारी कोरोना के साये में एक साल विलंब से आयोजित टोक्यो ओलंपिक खेलों में पहले ही दिन रजत पदक—वह भी भारोत्तोलन में और महिला खिलाड़ी द्वारा। आबादी के लिहाज से दुनिया में दूसरे नंबर पर होने के बावजूद ओलंपिक पदक तालिका में फिसड्डी रहने के लिए उपहास और आलोचना का पात्र बनने को अभिशप्त देश को यह गौरव दिलवाया है सुदूर पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर की 26 वर्षीय सैखोम मीरा बाई चानू ने। ओलंपिक खेलों के 121 साल के सफर में भारत के लिए यह मात्र 17वां व्यक्तिगत पदक है और महिला भारोत्तोलन में कुल दूसरा। यह भी जान लें कि नॉर्मन पिचार्ड, राज्यवर्धन राठौर, सुशील कुमार, विजय कुमार और पी वी सिंधु के बाद ओलंपिक खेलों में भारत का यह कुल जमा छठा रजत पदक है व्यक्तिगत स्पर्धा में। इससे इस पदक का मुश्किल लक्ष्य भी समझा जा सकता है और महत्व भी, पर जब मीरा-सी लगन हो तो लक्ष्य असंभव कैसे हो सकता है? महिला भारोत्तोलन में भारत के लिए पहला पदक 21 साल पहले कर्णम मल्लेश्वरी ने जीता था वर्ष 2000 के सिडनी ओलंपिक में। तभी पहली बार ओलंपिक में भारोत्तोलन स्पर्धा को महिलाओं के लिए खोला गया था। कर्णम ने तब 69 किलोग्राम श्रेणी में कांस्य पदक जीत कर भारत का मान बढ़ाया था तो अब चानू ने 49 किलोग्राम श्रेणी में रजत पदक जीत कर देश को गौरवान्वित किया है। मणिपुर के साधारण परिवार में जन्मी चानू असाधारण जीवट और प्रतिभा वाली खिलाड़ी है। पहले उसका सपना तीरंदाज बनने का था, लेकिन छठी कक्षा की पुस्तक में जब महिला भारोत्तोलक कुंजुरानी के विषय में पढ़ा तो ठान लिया कि उसी खेल में कुछ करिश्मा कर दिखायेगी। खेल के मैदान में—वह भी भारोत्तोलन में, करिश्मा कर दिखाने का यह सफर आसान हरगिज नहीं रहा। 12 साल की चानू को प्रैक्टिस के लिए भी ट्रक पर सवार हो कर लगभग 40 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था।
पारिवारिक स्थिति साधारण थी, लेकिन चानू का इरादा और उसमें परिवार का विश्वास निश्चय ही असाधारण था। जब स्वयं पर विश्वास हो और इरादा अटूट तो कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं रहता। यही छोटे-से कद की चानू ने साबित कर दिखाया। उन्हीं दिनों मीरा बाई पर पूर्व अंतर्राष्ट्रीय भारोत्तोलक एवं कोच अनिता चानू की नजर पड़ी। उन्होंने उसे पहली बार वजन उठाते हुए देख कर ही परख लिया कि इस लड़की में कुछ करिश्मा कर दिखाने का माद्दा है। मणिपुर से टोक्यो तक का सफर दरअसल मीरा की लगन और मेहनत की कहानी भी है।
हालांकि वर्ष 2016 के रियो ओलंपिक में चानू के सपने चूर-चूर हो गये थे, लेकिन यह उसी का जीवट रहा कि पांच साल में ही उसने खेलों के महाकुंभ के फलक पर अपना और देश का नाम दर्ज करा दिया। वर्ष 2016 में चानू ने सीनियर महिला राष्ट्रीय भारोत्तोलन चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता था और फिर अगले साल विश्व भारोत्तोलन चैंपियनशिप में भी स्वर्ण कब्जाया। इस प्रदर्शन के लिए उसे वर्ष 2018 में राजीव गांधी खेल रत्न और फिर पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। उसी साल चानू ने सीनियर महिला राष्ट्रीय भारोत्तोलन चैंपियनशिप में ही दूसरी बार स्वर्ण पदक नहीं जीता, बल्कि राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पदक अपने और देश के नाम किया। इसी साल कोरोना के साये में, फिटनेस की समस्या से जूझते हुए भी चानू ने ताशंकद में आयोजित एशियन भारोत्तोलन चैंपियनशिप में क्लीन एंड जर्क में 119 किलोग्राम भार उठा कर नया विश्व रिकॉर्ड बनाते हुए टोक्यो ओलंपिक के लिए अपने इरादे जता दिये थे। पांच साल में राष्ट्रीय चैंपियनशिप से ओलंपिक तक का यह सफर चानू की लगन और मेहनत की दास्तान तो है ही, देश खासकर मणिपुर की बेटियों के लिए प्रेरक उदाहरण भी है, जहां से भारोत्तोलन में बेहतर प्रतिभाएं सामने आ रही हैं।
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13 घंटे पहले
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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