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मध्यावधि कवायद के राजनीतिक निहितार्थ


राजकुमार सिंह
यह देखना दिलचस्प होगा कि लंबी चर्चाओं के बाद सात जुलाई की शाम अंजाम दिये गये नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल में फेरबदल और विस्तार से राजनीतिक अटकलों पर विराम लगेगा या उन्हें और गति मिलेगी। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में लगभग सवा दो साल बाद अंजाम किया गया यह बदलाव वाकई बड़ा है, और कुछ हद तक चौंकाने वाला भी। कुछ वरिष्ठों समेत एक दर्जन मंत्रियों की विदाई और 36 नये मंत्रियों की ताजपोशी सामान्य प्रक्रिया हरगिज नहीं है। मंत्रिमंडल की औसत उम्र युवा हुई है और महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। मित्र दलों को भी मौका मिला है। कार्यकाल के मध्य में मंत्रिमंडल में बड़े फेरबदल की देश में राजनीतिक परंपरा-सी रही है। क्योंकि यह कवायद लगभग आधा कार्यकाल निकल जाने पर अंजाम दी जाती है, इसलिए स्वाभाविक अपेक्षा रहती है कि मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा भी एक बड़ा आधार रहती होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले लगभग एक माह से जिस तरह अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के प्रमुख नेताओं से चर्चा कर रहे थे, उससे संदेश भी यही गया कि मंत्रिमंडलीय बदलाव की मध्यावधि कवायद को अंजाम देने से पूर्व वह मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा के साथ ही आगामी चुनावी चुनौतियों की राजनीतिक-सामाजिक जरूरतों का भी आकलन कर लेना चाहते हैं।
हमारे यहां चुनाव में टिकट वितरण से लेकर मंत्रिमंडल गठन तक की प्रक्रिया के लिए अंग्रेजी के शब्द सोशल इंजीनियरिंग का जुमला इस्तेमाल करना अब एक परंपरा-सी बन गयी है, जबकि सच यह है कि चुनाव जिताऊ सामाजिक समीकरण साधने की यह प्रक्रिया दरअसल पॉलिटिकल इंजीनियरिंग ही होती है। इसलिए सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर की जाने वाली इस पॉलिटिकल इंजीनियरिंग की असली परीक्षा चुनाव में ही होती है। बेशक इधर कुछ दशकों से चुनाव परिणामों में सरकार का कामकाज, जिसे एक शब्द में सुशासन कहा जा सकता है, भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है। यही कारण है कि पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश सरीखे राज्यों में, जहां कि हर चुनाव में ही सरकार बदल जाने की परंपरा-सी बन गयी थी, मतदाताओं ने एक ही दल को लगातार एक से अधिक कार्यकाल का जनादेश भी दिया। इसलिए प्रधानमंत्री हों या मुख्यमंत्री, सामाजिक-राजनीतिक-क्षेत्रीय समीकरण साधते हुए भी यह कोशिश अवश्य करते हैं कि मंत्री बने नेता अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए जन आकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरने की प्रतिभा-क्षमता रखते हों। शायद इसी प्रक्रिया में अराजनीतिक पृष्ठभूमि वाले पूर्व नौकरशाहों और प्रोफेशनल्स को संगठन या जनता की सेवा किये बिना ही सत्ता की मलाई मिलने लगी है। इनमें से कितने अपनी नयी जिम्मेदारियों के निर्वाह में अपेक्षाओं पर खरा उतर पाते हैं, यह अध्ययन और बहस का विषय हो सकता है।
बुधवार की शाम मोदी मंत्रिमंडल में किये गये फेरबदल को राजनीतिक प्रेक्षक मुख्यत: हाल के कुछ घटनाक्रमों से सरकार की साख पर उठे सवालों तथा आगामी चुनावी चुनौतियों से निपटने की कवायद के रूप में देख रहे हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि रविशंकर प्रसाद सरीखे दिग्गज और हर्षवर्धन सरीखे विनम्र नेता की मंत्रिमंडल से विदाई को उनके मंत्रालय के कामकाज को लेकर उठे सवालों-विवादों का परिणाम बताया जा रहा है। रविशंकर कानून मंत्री थे और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री भी। मोदी सरकार की पिछले एक साल में न्यायपालिका के समक्ष जितनी किरकिरी हुई, उतनी शायद उससे पहले के छह सालों में नहीं हुई होगी। ट्विटर और फेसबुक से विवादों के चलते सोशल मीडिया के प्रति सरकार के रुख की भी सकारात्मक तस्वीर तो नहीं उभरी। पिछले सवा साल से देश रहस्यमयी जानलेवा वैश्विक महामारी कोरोना का दंश झेल रहा है। पहली लहर से सबक सीख कर दूसरी लहर से निपटने के लिए जरूरी उपाय न किये जाने के परिणामस्वरूप देश-समाज ने जैसे हृदयविदारक दृश्य देखे, उन्हें भुला पाना शायद ही संभव हो। खुद एक प्रशिक्षित चिकित्सक होते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन से ऐसी अपेक्षा न तो प्रधानमंत्री को रही होगी और न ही देश को। माना जा रहा है कि कोरोना के दौरान ही प्रवासी श्रमिकों के पलायन तथा उन्हें जरूरी सरकारी मदद पहुंचाने में विफलता के लिए अदालती आलोचना की कीमत श्रम मंत्री संतोष गंगवार को चुकानी पड़ी है। जाहिर है, प्रकाश जावड़ेकर और रमेश पोखरियाल निशंक की मंत्रिमंडल से विदाई को भी उनके कामकाज के संदर्भ में ही देखा जायेगा।
पहले भी लिखा जा चुका है कि राजनीतिक विवादों से परे देखें तो नरेंद्र मोदी सरकार के पहले छह साल जहां उसके लिए उपलब्धियों से भरे कहे जा सकते हैं, वहीं सातवें साल में उठे सवालों ने उसकी साख को आंच ही पहुंचायी। कोरोना से निपटने की बहुआयामी रणनीति अगर वैसा पहला गंभीर सवाल है तो दूसरा सवाल स्वाभाविक ही देश की राजधानी दिल्ली की दहलीज पर सात महीने से जारी किसान आंदोलन है। दूसरी लहर के उतार और स्वास्थ्य मंत्री बदलने से भविष्य में कोरोना नियंत्रण रणनीति कितनी बदलेगी, यह तो समय ही बतायेगा, लेकिन किसान आंदोलन का सवाल मोदी सरकार के समक्ष अनुत्तरित ही खड़ा है। बेशक हठधर्मिता दोनों ओर से है, लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि इसका राजनीतिक खमियाजा चुनाव में भाजपा को ही भुगतना पड़ सकता है। पिछले दिनों हुए उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों में इसके संकेत भी मिल गये थे। यह अलग बात है कि बाद में हुए जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में बाजी भाजपा के हाथ रही, पर उससे किसी खुशफहमी का शिकार इसलिए नहीं होना चाहिए क्योंकि अतीत में भी जब जो दल सत्ता में रहा है, परिणाम उसी के पक्ष में गये हैं। कारण बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, सत्ता की महिमा सभी समझते हैं।
किसान आंदोनलन का ज्यादा असर हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में माना जा रहा है। पंजाब में लगभग सात महीने बाद चुनाव हैं, लेकिन वहां से किसी और नेता को मोदी मंत्रिमंडल में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी गयी है, जबकि हरियाणा से रतनलाल कटारिया को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया है। बेशक हरियाणा में विधानसभा चुनाव 2024 में होंगे और अभी भी इस छोटे-से राज्य से केंद्रीय मंत्रिमंडल में राव इंद्रजीत सिंह एवं कृष्णपाल गुर्जर शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में अगले साल फरवरी-मार्च में विधानसभा चुनाव होने हैं। पिछले दोनों लोकसभा चुनाव में भाजपा को अकेलेदम बहुमत दिलाने में ही उत्तर प्रदेश ने निर्णायक भूमिका नहीं निभायी, मतदाताओं ने तीसरे स्थान पर खिसक चुकी भाजपा को वर्ष 2017 में 300 से भी ज्यादा सीटों के साथ देश के इस सबसे बड़े राज्य की सत्ता भी सौंप दी। ऐसे में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों का महत्व भाजपा के लिए सहज ही समझा जा सकता है। किसान आंदोलन तथा समाजवादी पार्टी द्वारा छोटे दलों से गठबंधन की कवायद से भाजपा की चुनौतियां बढ़ेंगी ही।
बेशक इसी के मद्देनजर अपना दल की अनुप्रिया पटेल समेत भाजपा ने उत्तर प्रदेश को भारी-भरकम प्रतिनिधित्व दिया है, लेकिन पश्चिम की उपेक्षा चुनाव में भारी पड़ सकती है। किसान आंदोलन के चलते राष्ट्रीय लोकदल की सक्रियता और पंचायत चुनाव परिणामों का संकेत यही है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के चिर-परिचित चेहरे अब गढ़ बचाने में नाकाम हैं। सपा से राजनीति शुरू कर बसपा के रास्ते भाजपा में आये जिन एस.पी. सिंह बघेल को फेरबदल में जगह मिली है, उनके अपने जनाधार की परीक्षा अभी शेष है। यह भी कि किसान आंदोलन के चलते वही जाट समुदाय भाजपा समर्थक से विरोधी की मुद्रा में आ गया है, जिसने पिछली बार विजयी समीकरण बनाया था, जबकि भाजपा के परंपरागत जाट नेताओं की समाज में स्वीकार्यता तो दूर, प्रवेश तक मुश्किल हो गया है। देखना होगा कि क्या इस समीकरण को साधने के लिए उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में भी फेरबदल किया जायेगा। वैसे केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के जरिये प्रधानमंत्री ने अपने गृह राज्य गुजरात, जहां अगले साल आखिर में विधानसभा चुनाव होने हैं, समेत कमोबेश पूरे देश में ही सामाजिक-राजनीतिक समीकरण साधने की बेहद संतुलित कवायद की है, पर इसका परिणाम अंतत: सरकार के कामकाज और पार्टी संगठन की सक्रियता पर ही निर्भर करेगा। बेशक लंबे समय तक राजनीतिक अस्पृश्यता की शिकार रही भाजपा ने इस कवायद में अपने पुराने निष्ठावानों की कीमत पर अन्य दलों से आये नेताओं को मौका देने में भी परहेज नहीं किया है। शायद व्यावहारिक राजनीति का यही तकाजा हो!
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