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Lakhs died due to allopathy medicine Delhi High Court issued notice on Swami Ramdev statement - India Hindi News - 'एलोपैथी की दवा से लाखों मर गए', स्वामी रामदेव के बयान पर दिल्ली हाई कोर्ट ने जारी किया नोटिस


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एलोपैथी की दवा से लाखों मर गए , स्वामी रामदेव के बयान पर दिल्ली हाई कोर्ट ने जारी किया नोटिस
लाइव हिन्दुस्तान,नई दिल्ली।Published By: Himanshu Jha
Fri, 30 Jul 2021 02:14 PM
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दिल्ली हाई कोर्ट ने शुक्रवार को योग गुरु स्वामी रामदेव को एलोपैथी पर उनकी टिप्पणी के लिए नोटिस जारी किया। स्वामी रामदेव ने कोविड-19 मामलों के इलाज के तरीके को लेकर डॉक्टरों की आलोचना की थी। हाई कोर्ट ने रामदेव को एलोपैथी और एलोपैथिक डॉक्टरों के खिलाफ गलत सूचना फैलाने के लिए नोटिस जारी किया है। मामले की सुनवाई 10 अगस्त को होने की संभावना है।
स्वामी रामदेव ने बाद में टिप्पणी का एक वीडियो क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद अपना बयान वापस ले लिया था। वीडियो में उन्हें कोरोना वायरस संक्रमण के इलाज के लिए इस्तेमाल की जा रही कुछ दवाओं पर सवाल करते हुए यह कहते हुए सुना गया था कि कोविड -19 के लिए एलोपैथिक दवाएं लेने के बाद लाखों लोग मारे गए हैं ।
इस टिप्पणी का डॉक्टरों के संघों ने जोरदार विरोध किया, जिसके बाद तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने उन्हें बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए बयान को वापस लेने के लिए कहा।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने स्वामी रामदेव को एलोपैथी और एलोपैथिक डॉक्टरों के खिलाफ उनकी कथित टिप्पणी के लिए मानहानि का नोटिस दिया था, जिसमें उनसे 15 दिनों के भीतर माफी मांगने की मांग की गई थी, जिसमें विफल रहने पर उसने कहा कि वह योग से 1,000 करोड़ रुपये के मुआवजे की मांग करेगा। 
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की शिकायतों के बाद पटना और रायपुर में स्वामी रामदेव के खिलाफ कई प्राथमिकी दर्ज की गईं।
आईएमए के पटना और रायपुर चैप्टर ने स्वामी रामदेव के खिलाफ शिकायत दर्ज कराते हुए आरोप लगाया कि उनकी टिप्पणियों से कोविड -19 नियंत्रण तंत्र के खिलाफ पूर्वाग्रह पैदा होने की संभावना है और लोगों को महामारी के खिलाफ उचित उपचार का लाभ उठाने से रोक सकते हैं।
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मध्यावधि कवायद के राजनीतिक निहितार्थ


राजकुमार सिंह
यह देखना दिलचस्प होगा कि लंबी चर्चाओं के बाद सात जुलाई की शाम अंजाम दिये गये नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल में फेरबदल और विस्तार से राजनीतिक अटकलों पर विराम लगेगा या उन्हें और गति मिलेगी। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में लगभग सवा दो साल बाद अंजाम किया गया यह बदलाव वाकई बड़ा है, और कुछ हद तक चौंकाने वाला भी। कुछ वरिष्ठों समेत एक दर्जन मंत्रियों की विदाई और 36 नये मंत्रियों की ताजपोशी सामान्य प्रक्रिया हरगिज नहीं है। मंत्रिमंडल की औसत उम्र युवा हुई है और महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। मित्र दलों को भी मौका मिला है। कार्यकाल के मध्य में मंत्रिमंडल में बड़े फेरबदल की देश में राजनीतिक परंपरा-सी रही है। क्योंकि यह कवायद लगभग आधा कार्यकाल निकल जाने पर अंजाम दी जाती है, इसलिए स्वाभाविक अपेक्षा रहती है कि मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा भी एक बड़ा आधार रहती होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले लगभग एक माह से जिस तरह अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के प्रमुख नेताओं से चर्चा कर रहे थे, उससे संदेश भी यही गया कि मंत्रिमंडलीय बदलाव की मध्यावधि कवायद को अंजाम देने से पूर्व वह मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा के साथ ही आगामी चुनावी चुनौतियों की राजनीतिक-सामाजिक जरूरतों का भी आकलन कर लेना चाहते हैं।
हमारे यहां चुनाव में टिकट वितरण से लेकर मंत्रिमंडल गठन तक की प्रक्रिया के लिए अंग्रेजी के शब्द सोशल इंजीनियरिंग का जुमला इस्तेमाल करना अब एक परंपरा-सी बन गयी है, जबकि सच यह है कि चुनाव जिताऊ सामाजिक समीकरण साधने की यह प्रक्रिया दरअसल पॉलिटिकल इंजीनियरिंग ही होती है। इसलिए सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर की जाने वाली इस पॉलिटिकल इंजीनियरिंग की असली परीक्षा चुनाव में ही होती है। बेशक इधर कुछ दशकों से चुनाव परिणामों में सरकार का कामकाज, जिसे एक शब्द में सुशासन कहा जा सकता है, भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है। यही कारण है कि पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश सरीखे राज्यों में, जहां कि हर चुनाव में ही सरकार बदल जाने की परंपरा-सी बन गयी थी, मतदाताओं ने एक ही दल को लगातार एक से अधिक कार्यकाल का जनादेश भी दिया। इसलिए प्रधानमंत्री हों या मुख्यमंत्री, सामाजिक-राजनीतिक-क्षेत्रीय समीकरण साधते हुए भी यह कोशिश अवश्य करते हैं कि मंत्री बने नेता अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए जन आकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरने की प्रतिभा-क्षमता रखते हों। शायद इसी प्रक्रिया में अराजनीतिक पृष्ठभूमि वाले पूर्व नौकरशाहों और प्रोफेशनल्स को संगठन या जनता की सेवा किये बिना ही सत्ता की मलाई मिलने लगी है। इनमें से कितने अपनी नयी जिम्मेदारियों के निर्वाह में अपेक्षाओं पर खरा उतर पाते हैं, यह अध्ययन और बहस का विषय हो सकता है।
बुधवार की शाम मोदी मंत्रिमंडल में किये गये फेरबदल को राजनीतिक प्रेक्षक मुख्यत: हाल के कुछ घटनाक्रमों से सरकार की साख पर उठे सवालों तथा आगामी चुनावी चुनौतियों से निपटने की कवायद के रूप में देख रहे हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि रविशंकर प्रसाद सरीखे दिग्गज और हर्षवर्धन सरीखे विनम्र नेता की मंत्रिमंडल से विदाई को उनके मंत्रालय के कामकाज को लेकर उठे सवालों-विवादों का परिणाम बताया जा रहा है। रविशंकर कानून मंत्री थे और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री भी। मोदी सरकार की पिछले एक साल में न्यायपालिका के समक्ष जितनी किरकिरी हुई, उतनी शायद उससे पहले के छह सालों में नहीं हुई होगी। ट्विटर और फेसबुक से विवादों के चलते सोशल मीडिया के प्रति सरकार के रुख की भी सकारात्मक तस्वीर तो नहीं उभरी। पिछले सवा साल से देश रहस्यमयी जानलेवा वैश्विक महामारी कोरोना का दंश झेल रहा है। पहली लहर से सबक सीख कर दूसरी लहर से निपटने के लिए जरूरी उपाय न किये जाने के परिणामस्वरूप देश-समाज ने जैसे हृदयविदारक दृश्य देखे, उन्हें भुला पाना शायद ही संभव हो। खुद एक प्रशिक्षित चिकित्सक होते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन से ऐसी अपेक्षा न तो प्रधानमंत्री को रही होगी और न ही देश को। माना जा रहा है कि कोरोना के दौरान ही प्रवासी श्रमिकों के पलायन तथा उन्हें जरूरी सरकारी मदद पहुंचाने में विफलता के लिए अदालती आलोचना की कीमत श्रम मंत्री संतोष गंगवार को चुकानी पड़ी है। जाहिर है, प्रकाश जावड़ेकर और रमेश पोखरियाल निशंक की मंत्रिमंडल से विदाई को भी उनके कामकाज के संदर्भ में ही देखा जायेगा।
पहले भी लिखा जा चुका है कि राजनीतिक विवादों से परे देखें तो नरेंद्र मोदी सरकार के पहले छह साल जहां उसके लिए उपलब्धियों से भरे कहे जा सकते हैं, वहीं सातवें साल में उठे सवालों ने उसकी साख को आंच ही पहुंचायी। कोरोना से निपटने की बहुआयामी रणनीति अगर वैसा पहला गंभीर सवाल है तो दूसरा सवाल स्वाभाविक ही देश की राजधानी दिल्ली की दहलीज पर सात महीने से जारी किसान आंदोलन है। दूसरी लहर के उतार और स्वास्थ्य मंत्री बदलने से भविष्य में कोरोना नियंत्रण रणनीति कितनी बदलेगी, यह तो समय ही बतायेगा, लेकिन किसान आंदोलन का सवाल मोदी सरकार के समक्ष अनुत्तरित ही खड़ा है। बेशक हठधर्मिता दोनों ओर से है, लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि इसका राजनीतिक खमियाजा चुनाव में भाजपा को ही भुगतना पड़ सकता है। पिछले दिनों हुए उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों में इसके संकेत भी मिल गये थे। यह अलग बात है कि बाद में हुए जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में बाजी भाजपा के हाथ रही, पर उससे किसी खुशफहमी का शिकार इसलिए नहीं होना चाहिए क्योंकि अतीत में भी जब जो दल सत्ता में रहा है, परिणाम उसी के पक्ष में गये हैं। कारण बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, सत्ता की महिमा सभी समझते हैं।
किसान आंदोनलन का ज्यादा असर हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में माना जा रहा है। पंजाब में लगभग सात महीने बाद चुनाव हैं, लेकिन वहां से किसी और नेता को मोदी मंत्रिमंडल में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी गयी है, जबकि हरियाणा से रतनलाल कटारिया को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया है। बेशक हरियाणा में विधानसभा चुनाव 2024 में होंगे और अभी भी इस छोटे-से राज्य से केंद्रीय मंत्रिमंडल में राव इंद्रजीत सिंह एवं कृष्णपाल गुर्जर शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में अगले साल फरवरी-मार्च में विधानसभा चुनाव होने हैं। पिछले दोनों लोकसभा चुनाव में भाजपा को अकेलेदम बहुमत दिलाने में ही उत्तर प्रदेश ने निर्णायक भूमिका नहीं निभायी, मतदाताओं ने तीसरे स्थान पर खिसक चुकी भाजपा को वर्ष 2017 में 300 से भी ज्यादा सीटों के साथ देश के इस सबसे बड़े राज्य की सत्ता भी सौंप दी। ऐसे में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों का महत्व भाजपा के लिए सहज ही समझा जा सकता है। किसान आंदोलन तथा समाजवादी पार्टी द्वारा छोटे दलों से गठबंधन की कवायद से भाजपा की चुनौतियां बढ़ेंगी ही।
बेशक इसी के मद्देनजर अपना दल की अनुप्रिया पटेल समेत भाजपा ने उत्तर प्रदेश को भारी-भरकम प्रतिनिधित्व दिया है, लेकिन पश्चिम की उपेक्षा चुनाव में भारी पड़ सकती है। किसान आंदोलन के चलते राष्ट्रीय लोकदल की सक्रियता और पंचायत चुनाव परिणामों का संकेत यही है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के चिर-परिचित चेहरे अब गढ़ बचाने में नाकाम हैं। सपा से राजनीति शुरू कर बसपा के रास्ते भाजपा में आये जिन एस.पी. सिंह बघेल को फेरबदल में जगह मिली है, उनके अपने जनाधार की परीक्षा अभी शेष है। यह भी कि किसान आंदोलन के चलते वही जाट समुदाय भाजपा समर्थक से विरोधी की मुद्रा में आ गया है, जिसने पिछली बार विजयी समीकरण बनाया था, जबकि भाजपा के परंपरागत जाट नेताओं की समाज में स्वीकार्यता तो दूर, प्रवेश तक मुश्किल हो गया है। देखना होगा कि क्या इस समीकरण को साधने के लिए उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में भी फेरबदल किया जायेगा। वैसे केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के जरिये प्रधानमंत्री ने अपने गृह राज्य गुजरात, जहां अगले साल आखिर में विधानसभा चुनाव होने हैं, समेत कमोबेश पूरे देश में ही सामाजिक-राजनीतिक समीकरण साधने की बेहद संतुलित कवायद की है, पर इसका परिणाम अंतत: सरकार के कामकाज और पार्टी संगठन की सक्रियता पर ही निर्भर करेगा। बेशक लंबे समय तक राजनीतिक अस्पृश्यता की शिकार रही भाजपा ने इस कवायद में अपने पुराने निष्ठावानों की कीमत पर अन्य दलों से आये नेताओं को मौका देने में भी परहेज नहीं किया है। शायद व्यावहारिक राजनीति का यही तकाजा हो!
journalistrksingh@gmail.com

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From Covid-19 to work report card know the reason behind resignation of PM Modis 12 Cabinet ministers - India Hindi News - कोरोना से लेकर कामकाज बना आधार, मोदी कैबिनेट से 12 मंत्रियों की छुट्टी के पीछे ये हैं कारण


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कोरोना से लेकर कामकाज बना आधार, मोदी कैबिनेट से 12 मंत्रियों की छुट्टी के पीछे ये हैं कारण
विशेष संवाददाता,नई दिल्लीPublished By: Priyanka
Thu, 08 Jul 2021 06:40 AM
केंद्रीय मंत्रिमंडल में बड़ा फेरबदल करते हुए 12 मंत्रियों की छुट्टी कर दी गई है। इनमें से छह कैबिनेट मंत्री शामिल हैं, जिनके पास 12 मंत्रालयों का जिम्मा था। जबकि एक मंत्री स्वतंत्र प्रभार तथा पांच राज्यमंत्री शामिल हैं। मंत्रियों को हटाए जाने के पीछे अलग-अलग कारण बताए जा रहे हैं। किसी मंत्री को अच्छा प्रदर्शन नहीं कराने के कारण हटाया गया है तो कुछ को संगठन में बेहतर इस्तेमाल के मकसद से। कुछ मंत्रियों की उम्र ज्यादा होना भी प्रमुख रहा है। जबकि थावरचंद गहलोत को एक दिन पहले ही राज्यपाल नियुक्त किया गया है।
तीन मंत्रियों पर कोरोना की गाज
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन समेत तीन मंत्रियों को कोरोना की दूसरी लहर के कारण अपनी कुर्सी गवानी पड़ी। केंद्रीय मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल में हर्षवर्धन के अलावा रसायन एवं उर्वरक मंत्री सदानंद गौड़ा को कोरोना के प्रबंधन एवं उपचार के लिए दवाओं का पर्याप्त प्रबंधन नहीं कर पाने की कीमत चुकानी पड़ी। जबकि श्रम राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) संतोष गंगवार को दूसरी लहर के दौरान अपनी ही सरकार पर कोरोना प्रबंधन पर सवाल उठाना महंगा पड़ा। गंगवार ने कोरोना प्रबंधन में खामियों को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखा था जिससे सरकार की भारी किरकिरी हुई थी।
कोरोना की पहली लहर निकलने के बाद दूसरी लहर की आहट नहीं भांप पाने के कारण स्वास्थ्य मंत्रालय को विपक्ष ने भी कटघरे में खड़ा किया था तथा उनके इस्तीफे की मांग की थी। कहा जा रहा है कि जब करोना का नया वैरिएंट साल के आखिर में दस्तक दे रहा था तो स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसके निपटने के लिए कुछ नहीं किया। हर्षवर्धन के पास स्वास्थ्य के अलावा विज्ञान के दो मंत्रालय भी थे। इसी प्रकार रसायन एवं उवर्रक मंत्रालय की भूमिका भी दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराने में कमजोर रही। नतीजा यह हुआ कि जब दूसरी लहर पीक पर थी तब न अस्पताल में बेड थे और न दवाएं। सरकार से जुड़े सूत्रों का कहना है कि दोनों मंत्रियों की विदाई इसी का नतीजा है।
सरकार की छवि नहीं बना सके
सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के इस्तीफे के पीछे माना जा रहा है कि कोरोना काल में सरकार की छवि को नहीं बचा पाए। उनका मंत्रालय सरकार के प्रयासों को बेहतर तरीके से पेश करने में मंत्रालय नाकाम रहा है। जावड़ेकर के पास पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अलावा भारी उद्योग मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी था।
ट्विटर विवाद रहा कारण?
संचार, सूचना प्रौद्यौगिकी एवं कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के इस्तीफे के पीछे कोई स्पष्ट कारण दिखाई नहीं देता है। यह संभावना जताई जा रही है कि उनका संगठन में बेहतर इस्तेमाल के मकसद से यह कदम उठाया गया है। हालांकि हाल में ट्विटर एवं सोशल मीडिया कंपनियों से हुए विवाद के आलोक में भी उनके इस्तीफे को अहम माना जा रहा है।
स्वास्थ्य कारणों से निशंक का इस्तीफा
शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को हटाने के पीछे सबसे स्वास्थ्य संबंधी कारणों को अहम माना जा रहा है। कोरोना से ठीक होने के बाद वह पोस्ट कोविड दिक्कतों का सामना कर रहे हैं तथा हाल में ही एम्स से डिस्चार्ज हुए हैं। हालांकि बतौर शिक्षा मंत्री के रूप में वह कोई खास प्रदर्शन भी पिछले दो सालों के दौरान नहीं कर पाए। हालांकि ऐसा कोई कारण भी सार्वजनिक नहीं है जिससे लगे कि उनका कार्य बहुत खराब था।
थावरचंद गहलोत को क्यों हटाया?
थावरचंद गहलोत को कैबिनेट विस्तार से एक दिन पहले ही मंत्रालय से हटाकर कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया है। इसलिए उनके मामले में यह माना जा रहा है कि उनका प्रदर्शन अच्छा रहा है तथा लंबे समय से सरकार एवं सत्ता में कार्य करने के बाद उन्हें राज्यपाल बनाकर ईनाम दिया गया है। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री एवं राज्यसभा में सदन के नेता के रूप में उनका कार्य सराहनीय रहा।
बंगाल चुनावों में हार बना कारण
बंगाल कोटे के दोनों मंत्रियों बाबुल सुप्रियो एवं देवोश्री चौधरी को बदला गया है। दोनों राज्यमंत्री रहे हैं। इन्हें हटाए जाने को लेकर कामकाज के प्रदर्शन के साथ-साथ इन्हें राज्य की राजनीति में कार्य करने के लिए भेज जा रहा है। हटाए गए अन्य मंत्रियों में महाराष्ट्र के संजय धोत्रे, हरियाणा के रतनलाल कटारिया, ओडिसा के प्रताप सारंगी प्रमुख हैं। इन्हें हटाने के पीछे भी कामकाज एवं क्षेत्रीय समीकरणों को वजह माना जा रहा है। बता दें कि हाल में एक कैबिनेट बैंठक के दौरान ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ संकेत दे दिए थे कि कड़े फैसले लिए जाएंगे। उनका साफ ईशारा था कि मंत्री वही रह पाएंगे जिनका प्रदर्शन अच्छा होगा।
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Narendra Modi Cabinet Expansion; Ashwani Chaubey Take Oath as Ravi Shankar Prasad Resigns | अश्विनी चौबे की कुर्सी जाते-जाते बची, सेफ माने जा रहे रविशंकर प्रसाद की छुट्‌टी; सुशील मोदी करते रह गए इंतजार


Narendra Modi Cabinet Expansion; Ashwani Chaubey Take Oath As Ravi Shankar Prasad Resigns
बच गए बक्सर वाले चौबे जी:अश्विनी चौबे की कुर्सी जाते-जाते बची, सेफ माने जा रहे रविशंकर प्रसाद की छुट्‌टी; सुशील मोदी करते रह गए इंतजार
पटनाएक दिन पहलेलेखक: शालिनी सिंह
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रविशंकर प्रसाद और अश्विनी चौबे।
बिहार के लिए केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार चौंकाने वाला रहा। तमाम कोशिशों के बाद भी जनता दल यूनाईटेड (JDU) केवल एक मंत्री पद ले पाया तो चिराग के चाचा पशुपति पारस विरोध के बाद भी मंत्रिमंडल का हिस्सा बन गए। सुशील मोदी का इंतजार, इंतजार ही रह गया।
वहीं, रविशंकर प्रसाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल से बाहर हो गए तो केन्द्र सरकार में स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी चौबे की कुर्सी जाते-जाते बच गई। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन के इस्तीफे के साथ ही ये खबरें भी तेज हो गई कि स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी चौबे की कुर्सी भी चली गई है। दावा किया जाने लगा कि कोरोना के दौरान खराब स्वास्थ्य प्रबंधन ने दोनों मंत्रियों की कुर्सी ले ली, लेकिन आखिरी समय में ये चर्चा महज कोरी चर्चा बनकर रह गई। असल में अश्विनी चौबे बच गए। अश्विनी चौबे बिहार के बक्सर से सांसद हैं।
सेफ माने जा रहे रविशंकर प्रसाद की कुर्सी गई
पटना साहिब से सांसद और बिहार भाजपा की राजनीति में प्रभावी माने जाने वाले रविशंकर प्रसाद को केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा। एक साथ तीन-तीन विभागों को देख रहे रविशंकर प्रसाद का इस्तीफा बिहार के लिए चौंकाने वाला है। रविशंकर प्रसाद बिहार से केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों में सबसे सेफ माने जा रहे थे। रविशंकर प्रसाद के इस्तीफे की खबर शपथ ग्रहण समारोह के महज आधे घंटे पहले सामने आई।
ललन सिंह और सुशील मोदी को नहीं मिली मंत्रिमंडल में जगह
जदयू के ललन सिंह का नाम केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होनेवाले नेताओं में सबसे पक्का नाम माना जा रहा था, लेकिन ललन बाहर रह गए। 2 साल पहले सांकेतिक हिस्सेदारी लेने से इनकार कर चुके नीतीश कुमार को आखिरकार वही समझौता करना पड़ा। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में उन्हें सिर्फ एक कैबिनेट मंत्री की हिस्सेदारी मिली।
आरसीपी सिंह केन्द्रीय मंत्री बने। सुशील मोदी का हाल भी कुछ ऐसा ही है। सुशील मोदी का बिहार भाजपा की तरफ केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जाना लगभग तय माना जा रहा था, लेकिन आखिरी वक्त में उनका भी पत्ता साफ हो गया।
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Live Updates : मंत्रिमंडल विस्तार से पहले इस्तीफों की झड़ी, डॉक्टर हर्षवर्धन का भी त्यागपत्र

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कोरोना काल के बीच देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने दिया इस्तीफा, कौन होगा नया हेल्थ मिनिस्टर ?

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क्या हर्षवर्धन को बलि का बकरा बनाकर अपना पल्ला झाड़ लेंगे प्रधानमंत्री मोदी: कांग्रेस

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