दिलीप कुमार के यूसुफ़ ख़ान से दिलीप कुमार बनने की पूरी कहानी BBC Hindi| पुनः संशोधित बुधवार, 7 जुलाई 2021 (08:40 IST) प्रदीप कुमार, बीबीसी संवाददाता बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार को साँस लेने में कुछ तकलीफ़ के बाद अस्पताल में भर्ती करवाया गया था जिसके बाद सोशल मीडिया पर उनकी तबीयत बिगड़ने की अफ़वाहें चलने लगी थीं।
लेकिन रविवार को दिलीप कुमार की पत्नी सायरा बानो ने एक ट्वीट के ज़रिये स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने लिखा, "व्हॉट्सऐप पर शेयर हो रहीं अफ़वाहों पर विश्वास ना करें। साहब (दिलीप कुमार) ठीक हैं, उनकी तबीयत स्थिर है। दुआओं के लिए सभी का शुक्रिया। डॉक्टरों के मुताबिक़, वे 2-3 दिन में घर आ जायेंगे।"
इससे पहले उन्होंने लिखा था कि दिलीप साहब को रुटीन चेकअप के लिए एक ग़ैर-कोविड अस्पताल में भर्ती कराया गया है। पिछले कई दिनों से उन्हें साँस लेने में तकलीफ़ थी। डॉक्टर उनकी देखभाल कर रहे हैं। उनके लिए प्रार्थना करिए। दुनिया जिन्हें दिलीप कुमार के नाम से जानती है, जिनके अभिनय की मिसालें दी जाती हैं, उनकी ना तो फ़िल्मों में काम करने की दिलचस्पी थी और ना ही उन्होंने कभी सोचा था कि दुनिया कभी उनके असली नाम के बजाए किसी दूसरे नाम से याद करेगी।
दिलीप कुमार के पिता मुंबई में फलों के बड़े कारोबारी थे, लिहाजा शुरुआती दिनों से ही दिलीप कुमार को अपने पारिवारिक कारोबार में शामिल होना पड़ा। तब दिलीप कुमार कारोबारी मोहम्मद सरवर ख़ान के बेटे यूसुफ़ सरवर ख़ान हुआ करते थे।
एक दिन किसी बात पर पिता से कहा सुनी हो गई तो दिलीप कुमार पुणे चले गए, अपने पांव पर खड़े होने के लिए। अंग्रेजी जानने के चलते उन्हें पुणे के ब्रिटिश आर्मी के कैंटीन में असिस्टेंट की नौकरी मिल गई।
वहीं, उन्होंने अपना सैंडविच काउंटर खोला जो अंग्रेज सैनिकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हो गया था, लेकिन इसी कैंटीन में एक दिन एक आयोजन में भारत की आज़ादी की लड़ाई का समर्थन करने के चलते उन्हें गिरफ़्तार होना पड़ा और उनका काम बंद हो गया।
अपने इन अनुभवों का जिक्र दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा 'द सबस्टैंस एंड द शैडो' में बखूबी किया है।
यूसुफ़ ख़ान फिर से बंबई (अब मुंबई) लौट आए और पिता के काम में हाथ बटाने लगे। उन्होंने तकिए बेचने का काम भी शुरू किया जो कामयाब नहीं हुआ।
पिता ने नैनीताल जाकर सेव का बगीचा ख़रीदने का काम सौंपा तो यूसुफ़ महज एक रुपये की अग्रिम भुगतान पर समझौता कर आए। हालांकि इसमें बगीचे के मालिक की भूमिका ज़्यादा थी लेकिन यूसुफ़ को पिता की शाबाशी ख़ूब मिली।
ऐसे ही कारोबारी दिनों में आमदनी बढ़ाने के लिए ब्रिटिश आर्मी कैंट में लकड़ी से बनी कॉट सप्लाई करने का काम पाने के लिए यूसुफ़ ख़ान को एक दिन दादर जाना था।
वे चर्चगेट स्टेशन पर लोकल ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे तब उन्हें वहां जान पहचान वाले साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर मसानी मिल गए। डॉक्टर मसानी 'बॉम्बे टॉकीज' की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे थे।
उन्होंने यूसुफ़ ख़ान से कहा कि चलो क्या पता, तुम्हें वहां कोई काम मिल जाए। पहले तो यूसुफ़ ख़ान ने मना कर दिया लेकिन किसी मूवी स्टुडियो में पहली बार जाने के आकर्षण के चलते वह तैयार हो गए।
देविका रानी ने दिखाया था भरोसा उन्हें क्या मालूम था कि उनकी किस्मत बदलने वाली है। बॉम्बे टॉकीज़ उस दौर की सबसे कामयाब फ़िल्म प्रॉडक्शन हाउस थी। उसकी मालकिन देविका रानी फ़िल्म स्टार होने के साथ साथ अत्याधुनिक और दूरदर्शी महिला थीं।
दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा 'द सबस्टैंस एंड द शैडो' में लिखा है कि जब वे लोग उनके केबिन में पहुंचे तब उन्हें देविका रानी गरिमामयी महिला लगीं। डॉक्टर मसानी ने दिलीप कुमार का परिचय कराते हुए देविका रानी से उनके लिए काम की बात की।
देविका रानी ने दिलीप कुमार से पूछा कि क्या उन्हें उर्दू आती है? दिलीप कुमार हां में जवाब देते उससे पहले ही डॉक्टर मसानी देविका रानी को पेशावर से मुंबई पहुंचे उनके परिवार और फलों के कारोबार के बारे में बताने लगे।
इसके बाद देविका रानी ने दिलीप कुमार से पूछा कि क्या तुम एक्टर बनोगे? इस सवाल के साथ साथ देविका रानी ने उन्हें 1250 रुपये मासिक की नौकरी ऑफ़र कर दी। डॉक्टरी मसानी ने दिलीप कुमार को इसे स्वीकार कर लेने का इशारा किया।
लेकिन दिलीप कुमार ने देविका रानी को ऑफ़र के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि उनके पास ना तो काम करने का अनुभव है और ना ही सिनेमा की समझ।
तब देविका रानी ने दिलीप कुमार से पूछा था कि तुम फलों के कारोबार के बारे में कितना जानते हो, दिलीप कुमार का जवाब था, "जी, मैं सीख रहा हूं।"
देविका रानी ने तब दिलीप कुमार को कहा कि जब तुम फलों के कारोबार और फलों की खेती के बारे में सीख रहे हो तो फ़िल्म मेकिंग और अभिनय भी सीख लोगे।
साथ ही उन्होंने यह भी कहा, "मुझे एक युवा, गुड लुकिंग और पढ़े लिखे एक्टर की ज़रूरत है। मुझे तुममें एक अच्छा एक्टर बनने की योग्यता दिख रही है।"
साल 1943 में 1250 रूपये की रकम कितनी बड़ी होती थी, इसका अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि दिलीप कुमार को यह सालाना ऑफ़र लगा, उन्होंने डॉक्टर मसानी से इसे दोबारा कंफ़र्म करने को कहा और जब मसानी ने उन्हें देविका रानी से कंफ़र्म करके बताया कि यह 1250 रुपये मासिक ही है तब जाकर दिलीप कुमार को यक़ीन हुआ और वे इस ऑफ़र को स्वीकार करके बॉम्बे टॉकीज़ के अभिनेता बन गए।
बॉम्बे टॉकीज़ में शशिधर मुखर्जी और अशोक कुमार के अलावा दूसरे नामचीन लोगों के अभिनय की बारीकियां सीखने लगे। इसके लिए उन्हें प्रतिदिन दस बजे सुबह से छह बजे तक स्टुडियो में होना होता था। एक सुबह जब वे स्टुडियो पहुंचे तो उन्हें संदेशा मिला कि देविका रानी ने उन्हें अपने केबिन में बुलाया है।
इस मुलाकात के बारे में दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, "उन्होंने अपनी शानदार अंग्रेजी में कहा- यूसुफ़ मैं तुम्हें जल्द से जल्द एक्टर के तौर पर लॉन्च करना चाहती हूं। ऐसे में यह विचार बुरा नहीं है कि तुम्हारा एक स्क्रीन नेम हो।"
"ऐसा नाम जिससे दुनिया तुम्हें जानेगी और ऑडियंस तुम्हारी रोमांटिक इमेज को उससे जोड़कर देखेगी। मेरे ख़याल से दिलीप कुमार एक अच्छा नाम है। जब मैं तुम्हारे नाम के बारे में सोच रही थी तो ये नाम अचानक मेरे दिमाग़ में आया। तुम्हें यह नाम कैसा लग रहा है?"
नाम दिलीप कुमार रखने का प्रस्ताव दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि यह सुनकर उनकी बोलती बंद हो गई थी और वे नई पहचान के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे। फिर भी उन्होंने देविका रानी को कहा कि ये नाम तो बहुत अच्छा है लेकिन क्या ऐसा करना वाक़ई ज़रूरी है?
देविका रानी ने मुस्कुराते हुए दिलीप कुमार से कहा कि ऐसा करना बुद्धिमानी भरा होगा। देविका रानी ने दिलीप कुमार से कहा, "काफ़ी सोच विचारकर इस नतीजे पर पहुंची हूं कि तुम्हारा स्क्रीन नेम होना चाहिए।"
दिलीप कुमार ने यह भी लिखा है कि देविका रानी ने कहा कि वह फ़िल्मों में मेरा लंबा और कामयाब करियर देख पा रही हैं, ऐसे में स्क्रीन नेम अच्छा रहेगा और इसमें एक सेक्युलर अपील भी होगी।
हालांकि ये भारत की आज़ादी से पहले का दौर था और उस वक्त हिंदू और मुस्लिम को लेकर समाज में बहुत कटुता की स्थिति नहीं थी, लेकिन कुछ सालों के भीतर ही भारत और पाकिस्तान के बीच हिंदू और मुसलमान के नाम पर बंटवारा हो गया।
लेकिन देविका रानी को बाज़ार की समझ थी, उन्हें मालूम था कि किसी ब्रैंड के लिए दोनों समाज के लोगों की बीच स्वीकार्यता की स्थिति ही आदर्श स्थिति होगी। हालांकि ऐसा नहीं था केवल मुस्लिम कलाकारों को अपना नाम बदलना पड़ा रहा था और स्क्रीन नेम रखना पड़ रहा था।
दिलीप कुमार से पहले देविका रानी अपने पति हिमांशु राय के साथ मिलकर कुमुदलाल गांगुली को 1936 में 'अछूत कन्या' फ़िल्म से अशोक कुमार के तौर पर स्थापित कर चुकी थीं।
भारतीय सिनेमा के पहले कुमार थे अशोक कुमार
साल 1943 में अशोक कुमार की फ़िल्म 'किस्मत' सुपर डुपर हिट हुई थी। इस फ़िल्म की कामयाबी ने अशोक कुमार को देखते ही देखते सुपरस्टार बना दिया था। अशोक कुमार भारतीय सिनेमा के पहले कुमार थे।
ऐसे में बहुत संभव है कि 'किस्मत' फ़िल्म से होने वाली कमाई को देखते हुए यूसुफ़ के लिए स्क्रीन नेम का ध्यान आते वक्त देविका रानी के दिमाग़ में कुमार सरनेम रजिस्टर हुआ हो।
हालांकि ये बात तब दिलीप कुमार को मालूम नहीं थी, ये बात और थी कि वे हर दिन अशोक कुमार के साथ घंटों बिता रहे थे और उन्हें अशोक भैया कह कर बुलाते थे।
यूसुफ़ ख़ान के तौर पर वे देविका रानी के तर्कों से सहमत तो हो गए लेकिन उन्होंने इस पर विचार करने का वक़्त मांगा। देविका रानी ने कहा कि ठीक है, विचार करके बताओ, लेकिन जल्दी बताना।
देविका रानी के केबिन से निकल कर वे स्टूडियो में काम करने लगे लेकिन उनके दिमाग़ में दिलीप कुमार नाम ही चल रहा था। ऐसे में शशिधर मुखर्जी ने उनसे पूछ लिया कि किस सोच विचार में डूबे हो।
तब दिलीप कुमार ने देविका रानी से हुई बातचीत के बारे में उन्हें बताया। एक मिनट के लिए ठहर कर शशिधर मुखर्जी जो उनसे कहा, उसका ज़िक्र दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में किया है