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नेपाली घटनाक्रम में चौंकाती चीन की चुप्पी


पुष्परंजन
देखकर हैरानी होती है कि नेपाल में इतना कुछ 72 घंटे में हो गया और चीन बिल्कुल खामोश। काठमांडो स्थित चीनी राजदूत होऊ यांगशी इस समय ‘मैं चुप रहूंगी’ की भूमिका में हैं। ऐसे मौकों पर होऊ यांगशी की सक्रियता देखते बनती थी। आप यह नहीं कह सकते कि राजधानी काठमांडो में चीनी खुफिया एजंेसी एमएसएस (मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट सिक्योरिटी) द्वारा कम्युनिस्ट नेताओं से कोऑर्डिनेट करना भी बेकार साबित हुआ। चीन की पूरी नज़र शेर बहादुर देउबा के शपथ ग्रहण समारोह से संबंधित चल रही बहुपक्षीय बैठकों पर थी। चीनी सत्ता प्रतिष्ठान अब भी दिखा रहा है कि वह विन-विन सिचुएशन में है। शेर बहादुर देउबा से लेकर प्रचंड और नेपाली संसद में स्पीकर अग्नि प्रसाद सापकोटा सभी चीन द्वारा पीठ थपथपाना पसंद करते हैं।
हमारे विश्लेषकों के लिए यह पैरामीटर रहता है कि नेपाल का नवनियुक्त पीएम यदि शपथ के बाद सबसे पहले दिल्ली आता है तो वह भारत का हो गया। यह थ्योरी पुरानी हो चुकी है। वर्ष 2018 में केपी शर्मा ओली जब प्रधानमंत्री बने, उनकी पहली यात्रा दिल्ली की थी। जिन्हें लिपुलेख विवाद का ध्यान है और उसके प्रकारांतर हालिया योग दिवस के अवसर पर ओली को कहते सुना होगा कि योग की उत्पत्ति भारत में नहीं हुई, वो तय कर सकते हैं कि ओली ने दिल्ली से कितनी दोस्ती निभाई है। बावजूद इसके, ओली को एक रणनीति के तहत ‘भारत समर्थक’ घोषित कर दिया गया है। यह भी चर्चा आरंभ है कि ओली ने राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के साथ मिलकर जिस तरह के स्वेच्छाचारी फैसले लिये, वो सब भारत की शह पर हुआ। क्या ऐसे दुष्प्रचार को चीनी दूतावास और उसकी खुफिया एजंेसी ‘एमएसएस’ से फंडेड लोग हवा देते हैं?
यों केपी शर्मा ओली जैसे रंग बदलते नेता नेपाल की राजनीति के लिए रोज़ नया कीर्तिमान स्थापित करते रहे। वर्ष 2015-16 में ओली ने कई बयान दिये कि भारत अस्थिरता पैदा करने के लिए तराई के मधेस नेताओं को शह दे रहा है। वही ओली इस बार सरकार बचाने के वास्ते महंत ठाकुर-राजेंद्र महतो गुट के सांसदों का समर्थन ले रहे थे। ठीक से आकलन किया जाए तो मधेस के नेताओं का भी कोई दीन-ईमान नहीं है। जिन उम्मीदों को लेकर तराई की जनता ने मधेस नेताआंे को संसद में भेजा था, पिछले पांच वर्षों में उस पर पानी फेरने और अपना घर समृद्ध करने के सिवा कुछ नहीं हुआ।
7 जून, 2017 को जब शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री बने, उससे पहले पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ नेपाल के पीएम थे। प्रचंड के रहते पहली बार नेपाली सेना और चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने मार्च, 2017 में साझा सैनिक अभ्यास किये थे। 12 मई, 2017 को प्रचंड पेइचिंग गये और चीन की महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) के एमओयू पर हस्ताक्षर किये। इस समय नेपाली संसद के निचले सदन ‘प्रतिनिधि सभा’ के जो सभापति हैं, वे भी चीन यात्रा के दौरान दो नेपाली गैंडे उपहार में देने के वास्ते लेते गये थे। स्पीकर अग्नि प्रसाद सापकोटा पुराने माओवादी रहे हैं, उन्होंने दो गैंडों को चीन ले जाने के वास्ते बाकायदा सदन से प्रस्ताव पारित कराया था। अतीत की इन बातों की चर्चा की वजह यह बताना है कि इस समय जो लोग ओली को परास्त कर नेपाली सत्ता में आ रहे हैं, उनकी भी भक्ति चीन के प्रति कम नहीं है।
शेर बहादुर देउबा नेपाल के ऐसे प्रधानमंत्रियों में से हैं, जिन्हें राजा ज्ञानेंद्र ने 2002 और 2005 में अकर्मण्य घोषित कर दो-दो बार गद्दी से उतार दिया था। 1 फरवरी, 2005 को जब दूसरी बार शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री की कुर्सी से किंग ज्ञानेंद्र ने उतारा, तब उन पर निकम्मा होने का आरोप लगाया गया था। तत्कालीन नरेश ज्ञानेंद्र की टिप्पणी थी, ‘यह प्रधानमंत्री इस लायक नहीं कि देश में आम चुनाव करा सकें। इसलिये, इसे बर्खास्त करता हूं।’ समय का चक्र देखिये, वही ‘अकर्मण्य’ शेर बहादुर देउबा पांचवीं बार नेपाल के पीएम बन रहे हैं। नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा 1995 से 1997, 2001 से 2002, तीसरी बार 2004 से 2005 और चौथी बार 2017 से 2018 तक नेपाल के शासन प्रमुख रह चुके हैं। इस बार भी सर्वोच्च अदालत का निष्पक्ष रुख़ नहीं होता, तो देउबा का प्रधानमंत्री बनना संभव नहीं था। जनांदोलन भटकाव पर था और राजनीतिक गुट कब किस पाले में चले जाएं, इसका भरोसा नहीं था।
नेपाल के संसदीय इतिहास में छह बार ‘प्रतिनिधि सभा’ भंग हो चुकी है। विघटित प्रतिनिधि सभा तीन बार सर्वोच्च अदालत के आदेश से, और एक बार जनांदोलन के बाद पुनर्स्थापित की गई। इस समय सबसे अधिक फजीहत राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी की हो रही है। उनके तमाम निर्णय जिससे ओली की स्वेच्छाचारिता या यों कहें कि तानाशाही बढ़ती गई, का पुनर्मूल्यांकन अदालत की टिप्पणी के बाद से आरंभ हो गया है। उन्होंने अनुच्छेद 76 (3), अनुच्छेद 76 (7) का दुरुपयोग किया, यह कोर्ट के फैसले से साबित हो जाता है। प्रधान न्यायाधीश चोलेन्द्र शमशेर जबरा ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि 21 मई, 2021 को दो बजे रात को संसद को भंग करने व उससे पहले अनुच्छेद 76 (5) के तहत ओली की प्रधानमंत्री पद पर दोबारा से नियुक्ति पूरी तरह से असंवैधानिक थी। पांच जजों की पीठ के परमादेश को ठीक से पढ़ें तो महाभियोग की पृष्ठभूमि स्वत: तैयार होती दिखती है।
राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी का दूसरा टर्म मार्च, 2022 तक है, उन पर महाभियोग लगाना आसान है, क्योंकि उसके लिए संसद के 25 फीसद सदस्यों के हस्ताक्षर चाहिए। मगर, महाभियोग पारित कराना अभी के माहौल में असंभव-सा लग रहा है। उस वास्ते संसद के साझा सत्र में दो-तिहाई मतों का होना अनिवार्य है। इतना ज़रूर है कि राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी सहज रूप से अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर पायेंगी। उन पर अदालत ने भी एक तरह से लक्ष्मण रेखा खींच दी है।
देउबा के लिए पहली चुनौती नये मंत्रिमंडल का गठन है, जिसमें सभी पांच दलों के नेता महत्वपूर्ण मंत्रालयों के आकांक्षी हैं। मगर जनता समाजवादी पार्टी (जसपा) उपेंद्र यादव गुट के 12 सांसद निर्वाचन आयोग द्वारा फैसले के बाद ही सरकार में जाने का निर्णय ले सकेंगे। दूसरी चुनौती 30 दिनों के भीतर संसद में विश्वासमत हासिल करने की रहेगी। देउबा के लिए भारत-चीन से संबंधों का संतुलन बनाये रखना तीसरी चुनौती होगी। आखि़री बार वे प्रधानमंत्री मोदी से 24 अगस्त, 2017 को नई दिल्ली के हैदराबाद हाउस में मिले थे। तब आठ उभयपक्षीय समझौते हुए थे। प्रधानमंत्री रहते शेर बहादुर देउबा को कोविड से जनित समस्याओं से जूझना है, इसमें भारत किस तरह से मदद करे, इस पर नये सिरे से बातचीत होनी चाहिए। पेट्रोलियम आयात, सीमा पर आवाजाही और बेरोज़गारी की समस्या मुंह बाये खड़ी है।
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली संपादक हैं।
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6 घंटे पहले
6 घंटे पहले
6 घंटे पहले
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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