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चीनी साम्राज्यवाद के मुकाबले का वक्त


जी. पार्थसारथी
इस विवादास्पद मुद्दे पर बहस होती रहती है कि क्या नई बनती वैश्विक व्यवस्था, जिसमें उतरोत्तर मुखर और आक्रामक होता चीन अपना प्रभुत्व बनाना चाहता है— इसके मद्देनजर भारत को अपनी गुट-निरपेक्ष नीति त्याग देनी चाहिए। हालांकि, गुटनिरपेक्षता के आदर्श या कहें कि ‘असल गुटनिरपेक्षता’ निभाने के फायदे भी हैं। तभी रूस और अमेरिका, दोनों देशों के साथ हमारे संबंध मधुर हैं। तथापि आज की दुनिया में हकीकत यह है हमारी सीमाओं पर शी जिनपिंग के नेतृत्व वाले चीन से चुनौतियां दरपेश हैं। चीन अपनी बढ़ती आर्थिकी और सैन्य ताकत का निरंतर दुरुपयोग करते हुए 18 मुल्कों के साथ लगती थलीय और जलीय सीमा संबंधी मनमाने दावे जता रहा है। हम यह भी देख रहे हैं चीन द्वारा राष्ट्रों के हक रौंदकर अपना प्रभुत्व बनाने के खिलाफ उठ खड़े होने को वियतनाम जैसे छोटे देशों के दृढ़ निश्चय और इच्छाशक्ति में इजाफा भ्ाी हुआ है।
चीनी नेतृत्व के दिमाग में यह ग्रंथि है कि राष्ट्रों के साथ द्विपक्षीय रिश्तों के नियम वह तय करेगा और उन्हें उनका पालन करना होगा। भारत के खिलाफ चीन की नीति एकदम साफ है, वह हमारी घेराबंदी करना चाहता है, इसके लिए सैन्य ताकत इस्तेमाल कर समय-समय पर ‘सलामी कटिंग’ वाली नीति से टुकड़ों में इलाका हड़पता आया है। जहां पहले उसका ध्यान हमारी पूरबी सीमाओं पर भूमि कब्जाने पर केंद्रित था, वहीं पिछले कुछ सालों से अब लद्दाख वाली उत्तरी सीमा पर भी यही करने लगा है। पिछले साल हिमालय की ऊंचाइयों पर बनी आमने-सामने वाली तनावपूर्ण स्थिति के बाद, जिसमें दोनों ओर से टैंक तक तैनात कर दिए गए थे, अंततः चीनी फौज के पीछे हटने पर संधि हुई थी। तय हुआ था कि चीनी सैनिक जनवरी, 2020 वाले अपने ठिकानों तक वापस होंगे। इसके बावजूद भारतीय क्षेत्र में देपसांग, गोगरा और हॉट स्प्रिंग इलाके पर अभी भी चीन का नियंत्रण बरकरार है।
भारत को ‘नाथने’ के प्रयासों में चीन का एक तरीका यह भी है कि दीगर दक्षिण एशियाई मुल्कों में वह उन राजनीतिक दलों और नेताओं की मदद करता है, जिनकी धारणा भारत-विरोधी है। पिछले सालों में इसका सुबूत नेपाल, मालदीव और श्रीलंका में देखने को मिला है। चीन की यह नीति हर बार काम नहीं करती क्योंकि अधिकांश दक्षिण एशियाई राजनेताओं को अब पता चल गया है कि बेबात भारत को नाराज करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। इसके अलावा कुछ राजनेता जैसे कि बांग्लादेश की शेख हसीना और भूटान की राजशाही को चीन द्वारा फुसलाए जाने वाले प्रयासों का खासा अनुभव है। भूटान के साथ मौजूदा सीमा को भी चीन मान्यता नहीं देता। चीन ने भारतीय हितों को चोट पहुंचाने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल करना जारी रखा हुआ है। चाहे यह काम अफगानिस्तान में तालिबान का समर्थन करके हो या फिर पाकिस्तान की थल, जल और नभ सैन्य क्षमता को मिसाइलों और परमाणु आयुधों से लैस करके सुदृढ़ करने वाला हो। इसके अलावा चीन ने बेल्ट एंड रोड नामक परियोजना की आड़ में मालदीव, श्रीलंका और पाकिस्तान को कर्ज के मकड़जाल में फंसाकर उनकी सार्वभौमिकता को गिरवी रख लिया है, लेकिन अब उनको यह खेल समझ आने लगा है। हिंद-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में चीन द्वारा अधिनायकवादी प्रभुत्व बनाने वाले प्रयासों का जवाब देने को भारत अब बेहतर स्थिति में है।
चीन के 18 पड़ोसी मुल्कों के साथ थलीय और जलीय सीमा संबंधी विवाद चल रहे हैं, इसकी शुरुआत वियतनाम के बड़े समुद्री इलाके पर अपना दावा ठोंकने से हुई थी। चीन ऐतिहासिक सीमा रेखा का वास्ता देकर वियतनामी क्षेत्र को अपना बताता आया है। उसका दावा है कि मिंग वंश के साम्राज्य में 1368-1644 के बीच यह विवादित इलाका चीन का हिस्सा था। वह वियतनाम के पैरासैल द्वीप, दक्षिण चीन सागरीय सीमावर्ती इलाके और स्पार्टी द्वीप पर भी अपना गैरकानूनी हक जता रहा है। वर्ष 1979 में शुरू होकर इन पड़ोसी देशों में खूनी युद्ध चला था, जिसमें दोनों ओर भारी जानी नुकसान हुआ था। जमीनी लड़ाई 1984 में रुक गई थी लेकिन नौसैन्य झड़पें 1988 तक चली थीं।
फिलीपींस के जलीय क्षेत्र पर भी चीन अपना अवैध दावा ठोक रहा है। इस विवाद में अंतर्राष्ट्रीय जलसीमा न्यायाधिकरण द्वारा फिलीपींस के हक में दिए फैसले को खारिज कर चीन ने अंतर्राष्ट्रीय कानून को धता बताया है। भारत, जापान, फिलीपींस, रूस और वियतनाम के साथ इलाका विवादों के अलावा चीन का विवाद दक्षिण एशियाई मुल्कों में नेपाल और भूटान से भी है। इनके अलावा, उत्तर और दक्षिण कोरिया, ताइवान, ब्रुनेई और ताजिकिस्तान के साथ भी सीमा झगड़े हैं, यहां तक कि आसियान संगठन के सदस्य देश सिंगापुर, ब्रुनेई, मलेशिया, इंडोनेशिया, कम्बोडिया और लाओस के साथ भी। लेकिन चीन की सीमा संबंधी महत्वाकांक्षा का सामना करने में आपसी एकता दिखाने की बजाय आसियान देश इस बात पर बंटे हुए हैं कि चीनी दावों से कैसे निपटा जाए।
12 मार्च, 2021 को जारी घोषणापत्र ‘क्वाड की भावना’ में अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के शीर्ष नेतृत्व ने अपना ध्यान कोविड-19 महामारी से कैसे निपटना है, इस पर सहयोग के उपायों पर केंद्रित रखा है। इन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कानून सम्मत एक मुक्त, निर्बाध, नियम आधारित व्यवस्था बनाने की शपथ ली है ताकि हिंद-प्रशांत महासागरीय और उससे परे जलराशि में सुरक्षा यकीनी बनाने और बेजा धमकियों का जवाब देने को पुष्ट किया जाए। घोषणा कहती है ‘हम अंतर्राष्ट्रीय कानून सम्मत मुक्त, स्वतंत्रता आधारित व्यवस्था बनाने को प्रतिबद्ध हैं ताकि क्षेत्र में सुरक्षा एवं समृद्धि को बढ़ावा मिल सके। हम कानून के राज कायम करने, स्वतंत्र नौवहनीय एवं वायुमार्गीय आवाजाही, विवादों का शांतिपूर्ण निपटारा करने, लोकतांत्रिक मूल्यों और क्षेत्रीय अखंडता कायम रखने का समर्थन करते हैं।’ क्वाड की बैठक में यह सहमति बनी है कि अमेरिका अपनी जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी की मार्फत भारत में 2022 के अंत तक कोविड वैक्सीन के 100 करोड़ टीके बनाने वाला प्लांट स्थापित करवाएगा।
हिंद और प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में चीन पड़ोसी मुल्कों से सीमा संबंधी विवाद वार्ता से सुलझाने की बजाय अपनी इच्छा दूसरों पर थोपने पर आमादा है। यह कृत्य आसियान और बिमस्टेक जैसे संगठनों की मौजूदगी के बावजूद कर रहा है, जिनका मंतव्य क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना है। जब बात सीमा विवादों की हो, तो चीन अपने नियम-कानून लागू करवाना चाहता है।
जिस ढंग से अमेरिका ने अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी की है, वह समझ से बाहर है। अफगानिस्तान में अमेरिका अपने पीछे जिस अफगान सेना को छोड़ गया है उसके पास हथियार और संसाधन किसी अर्ध-सैनिक बल सरीखे हैं, उसके पास न तो पर्याप्त तोपखाना, टैंक है और न ही अन्य जरूरी उपकरण हैं। तालिबान फिलहाल अफगानिस्तान में एक भी प्रांतीय राजधानी पर कब्जा करने में कामयाब नहीं हो पाया है। यदि अमेरिका अफगानिस्तान में पाकिस्तान की मदद वाले आतंकवाद से सख्ती से नहीं निपटता तो यह मायूस करने वाली बात है। इसकी बजाय अमेरिका वहां एक अन्य ‘कवाड’ को बढ़ावा देने में लगा है, जिसका मंतव्य अफगानिस्तान को पाकिस्तान और उजबेकिस्तान से जोड़ना है। यह देखने में वाकई अजीब है क्योंकि ठीक इसी समय अफगानिस्तान अपने समक्ष जिस सबसे गंभीर चुनौती का सामना कर रहा है, वह है तालिबान, जिसकी मदद पाकिस्तान से जारी है। तथापि अफगानिस्तान में भारत के अपने मित्र हैं, जिनके साथ सहयोग करके मुश्किल भंवर में पड़े इस दोस्त पड़ोसी मुल्क की मदद की जा सकती है।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।
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9 घंटे पहले
8 घंटे पहले
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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