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understand the great game of afghanistan: Explained : 1830 से 2021 तक... इस तरह दो सौ वर्षों से ग्रेट गेम का शिकार है अफगानिस्तान - from 1830 till 2021, know all about the 190 years of the great game in afghanistan


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Explained : 1830 से 2021 तक... इस तरह दो सौ वर्षों से ग्रेट गेम का शिकार है अफगानिस्तान
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Afghanistan - Taliban News : मध्य एशियाई आक्रमणकारियों के पैरों तलों कुचले जाने से लेकर पश्चिमी देशों के ग्रेट गेम तक... अफगानिस्तान की किस्मत ही कुछ ऐसी रही कि वो हमेशा शांति के लिए तरसता रहा। अब जब अमेरिकी सेना की वापसी हो गई तो वहां ग्रेट गेम के नए अध्याय का आरंभ हो चुका है।
 
मुल्ला अब्दुल गनी बरदर और वां यी, दूसरी तस्वीर में एंटली ब्लिंकन और एस. जयशंकर।
हाइलाइट्स
ब्रिटेन और रूस के बीच द ग्रेट गेम की शुरुआत सन 1830 में हुई थी
भारत को रूस की पहुंच से बचाने के लिए ब्रिटेन ने शुरू किया था द ग्रेट गेम
उसी कवायद में अफगानिस्तान बफर स्टेट बन गया और तब से उसका यही हाल है
अमेरिकी सेना की वापसी के बाद ग्रेट गेम का आयाम बदल गया, खिलाड़ी बदल गए
नई दिल्ली
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी और प्रमुख इलाकों पर तालिबान के कब्जों के बढ़ते सिलसिले के बीच अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का नया अध्याय शुरू हो गया है। अफगान सेना और तालिबान के बीच जारी जंग के दौरान मुलाकातों और बातों का नया दौर जोर पकड़ रहा है। इसी क्रम में बुधवार को एक तरफ अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर से नई दिल्ली में मुलाकात की तो दूसरी तरफ तालिबान के सह-संस्थापक मुल्ला अब्दुल गनी बरदर और चीनी विदेश मंत्री वांग यी चीनी शहर तिआनजिन में मिले। उससे पहले, शनिवार को पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने वांग से मुलाकात की थी। इन मुलाकातों के बाद जारी बयानों पर गौर करने से अफगानिस्तान में हर पक्ष की दिलचस्पी का दायरा समझ में आने लगता है और यह समझ पैदा होते ही यह सवाल कौंधने लगता है कि क्या अफगानिस्तान का 'द ग्रेट गेम' फिर शुरू हो चुका है?
यूं शुरू हुआ ग्रेट गेम का पहला अध्याय
इस सवाल का जवाब जानने से पहले हमें अतीत के अफगानी ग्रेट गेम, उसके खिलाड़ियों, उनकी प्रवृत्ति और खेल की प्रकृति को समझना होगा। दरअसल, ग्रेट गेम की शुरुआत हुई थी वर्ष 1830 में। तब तक भारत को 'अंग्रेजी उपनिवेश के ताज में जड़े हीरे' की उपाधि हासिल हो चुकी थी। ब्रिटेन को रूस पर शंका हो रही थी कि वो भारत को उसके कब्जे से छीनने की कोशिश कर सकता है। वह इस संभावना मात्र से सिहर उठता कि जब हीरा निकल जाएगा तो ब्रिटिश उपनिवेश का ताज कितना बदसूरत दिखने लगेगा। इसलिए, उसने रूस के लिए भारत से संपर्क के सारे रास्ते बंद करने की योजना बनाई।
ब्रिटेन को औपनिवेशिक ताज के हीरे की चिंता
बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर इंडिया के प्रेसिडेंट लॉर्ड एलनबरो (Lord Ellenborough) ने 12 जनवरी, 1830 को तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक को भारत से बुखारा तक नए व्यापार मार्ग की स्थापना करने का निर्देश दिया। एलनबरो की चाहत थी कि भारत और रूस के बीच तुर्की, पर्सिया (आज का ईरान) और अफगानिस्तान को बफर स्टेट के रूप में इस्तेमाल किया जाए। उन्होंने फारस की खाड़ी और हिंद महासागर के बंदरगाहों से रूस को दूर रखने के लिए यह खाका खींचा था।
यूं बफर स्टेट बन गया अफगानिस्तान
उधर, रूस चाहता था कि अफगानिस्तान में उसे भी प्रवेश मिले ताकि महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों तक उसकी पहुंच बनी रहे। इसी खींचतान में 1838 का पहला एंग्लो-अफगान वॉर, 1845 का एंग्लो-सिख वॉर, 1848 का दूसरा एंग्लो-सिख वॉर और 1878 का दूसरा एंग्लो-अफगान वॉर हुआ। ब्रिटेन यह चारों युद्ध हार गया और रूस को बुखारा समेत कुछ इलाकों पर नियंत्रण हासिल हो गया। इस तरह अफगानिस्तान पर जीत हासिल करने की ब्रिटेन की मंशा तो पूरी नहीं हो पाई, लेकिन यह ब्रिटेन के लिए भारत और रूस के बीच बफर स्टेट जरूर बन गया।
क्यों ग्रेट गेम में फंस गया अफगानिस्तान
दरअसल, अफगानिस्तान मध्य एशिया और दक्षिण एशिया का संपर्क मार्ग है। पहले मध्य एशियाई और बाद में यूरोपीय ताकतों ने इसी रास्ते से भारत पर आक्रमण किए। ईसा पूर्व 522 में डेरियस द ग्रेट ने ईरानी साम्राज्य का विस्तार मौजूदा अफगानिस्तान के ज्यादातर इलाकों तक कर लिया था। ईसा पूर्व 330 आते-आते सिकंदर महान ने ईरान और अफगानिस्तान को जीत लिया। सदियों तक विदेशी आक्रमणों को झेलते रहने के बाद अफगानिस्तान आखिरकार 18वीं सदी में अहमद शाह दुर्रानी के नेतृत्व में एक राष्ट्र का रूप ले सका। हालांकि, उसके बाद भी उसकी किस्मत अच्छी नहीं रही और वो ग्रेट गेम का शिकार होता रहा। 19वीं सदी में रूस के साथ ब्रिटेन का ग्रेट गेम चला तो 20वीं सदी के आखिर में शुरू हुए ग्रेट गेम में रूस के विपक्ष का खिलाड़ी बदल गया और ब्रिटेन की जगह अमेरिका ने ले ली।
20वीं सदी का ग्रेट गेम और अफगानिस्तान
चार युद्धों में ब्रिटेन की हार के बाद अफगानिस्तान पर रूस का दबदबा कायम हो गया। 20वीं सदी आते-आते अफगानी शासन के अंदरूनी मामलों में भी साम्यवादी रूस का दखल हो गया। वर्ष 1978 में जब अफगानिस्तान में साम्यवादी सरकार बनी तो विपक्षी नेताओं पर अत्याचार होने लगे और हजारों राजनीतिक बंदियों की हत्या कर दी गई। अप्रैल 1979 आते-आते सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह छिड़ गया। तब तत्कालीन सोवियत रूस ने अफगानिस्तान की सीमाओं पर अपनी सेना भेज दी। रूस और अफगान सेनाओं का सामना करने के लिए जिहाद का आह्वान किया गया। सगंठित मुजाहिदीनों (जिहाद के लिए लड़ने वाले लड़ाकों) के समूह का 10 वर्षों तक अफगानी सेना और सरकार के साथ भीषण संघर्ष चलता रहा।
उस वक्त मुजाहिदीनों को पाकिस्तान के उत्तरी प्रांत में सैन्य प्रशिक्षण दिया गया और अमेरिका, ईरान, सऊदी अरब, चीन, यूके जैसे देशों ने उसकी आर्थिक मदद की। इस संघर्ष में करीब 6 से 20 लाख अफगानी मारे गए जबकि लाखों की संख्या में ईरान, पाकिस्तान जैसे देशों में शरणार्थी बने। आखिरकार, नौ वर्ष ए महीना तीन सप्ताह और एक दिन के भीषण संघर्ष के बाद रूस को अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी। तत्कालीन सोवियत संघ की मिखाइल गोर्बाचोव सरकार ने 15 फरवरी, 1989 को रूसी सैनिकों की संपूर्ण वापसी का ऐलान कर दिया।
तालिबान का उदय और 9/11 का हमला
अफगानिस्तान की किस्मत देखिए! रूसी सेना की वापसी और गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद भी उसे वो शांति नसीब नहीं हुई जिसके लिए एक दशक तक संघर्ष चला। पाकिस्तान की जमीं पर प्रशिक्षित जिन मुजाहिदीनों ने रूस की सेना को अफगानिस्तान की जमीन से मार भगाया, उनके बीच ही गुटबाजी हो गई और वो आपस में खून-खराबा करने लगे। अफगानी जनता उनसे त्रस्त हो गई। इसी माहौल में तालिबान का उदय हुआ। यह पश्तूनों के नेतृत्व में उभरा जिसने 1994 में अपनी मौजूदगी का खुला ऐलान कर दिया। चार वर्षों में ही 1998 आते-आते उसका अफगानिस्तान के 90 प्रतिशत इलाकों पर कब्जा हो गया। तालिबान का ही एक धड़ा अल-कायदा का प्रमुख ओसामा बिन लादेन ऐसा खूंखार चेहरा निकला जिसने 9 नवंबर 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला करवा दिया।
अफगानिस्तान में अमेरिका का आगमन
अमेरिका ने तालिबान को खत्म करने के संकल्प के साथ अफगानिस्तान में अपनी सेना भेज दी। 7 अक्टूबर, 2001 को अमेरिकी नेतृत्व में नाटो गठबंधन ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया। तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता से बेदखल करने में अमेरिका सफल रहा, लेकिन तालिबानी नेता मुल्ला उमर और अल-कायदा प्रमुख ओसाम बिन लादेन, में कोई भी हाथ नहीं लग सका। दो दशकों की लड़ाई के बाद भी जब अमेरिका अपने संकल्प को पूरा नहीं कर सका तो उसने अफगानिस्तान से निकलने में ही भलाई समझी। पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी का ऐलान कर दिया और नए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अफगानिस्तान में अपने सैन्य अड्डों को अफगान सेना के हवाले कर दिए।
नए आयाम में पहुंचा ग्रेट गेम
तो क्या अब अफगानिस्तान में शांति बहाली होगी? ना, उसकी इतनी ऐसी किस्मत कहां! वहां फिर से द ग्रेट गेम शुरू हो चुका है। मुलाकातों का ताजा दौर इसी ग्रेट गेम की दिशा तय करने के लिए चल रहा है। अमेरिका का कहना है कि उसने अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाई हैं, नजरें नहीं। उसकी नजरें अब भी अफगानिस्तान पर हैं। उसका यह संदेश सीधे तौर पर चीन के लिए है।
उधर, रूस यह सुनिश्चित करना चाहता है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना तो गई ही, उसका दबदबा भी चला जाए। इधर, भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच अफगानिस्तान में खाली हुए स्पेस पर कब्जे की होड़ मची है। कुल मिलाकर, कुछ खिलाड़ियों की अदला-बदली और उनकी भूमिकाओं में थोड़ी फेरबदल के साथ अफगानिस्तान का द ग्रेट गेम आज भी जारी है, जो आगे कौन-कौन सा रुख अख्तियार करेगा, यह भविष्य के गर्भ में ही छिपा है।
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