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Apart From Diplomatic Relations Military Operation Against Taliban By India Could Create More Trouble In Afghanistan - अफगानिस्तान: तालिबान के खिलाफ संभव नहीं 'ऑपरेशन लाल डोरा', भारत के लिए मुश्किल होगी सैन्य कार्रवाई!


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अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते प्रभाव से भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक छोटे बड़े देश चिंतित हैं। नई दिल्ली में अफगानिस्तान के राजदूत फरीद मामुंदजई ने मीडिया से बातचीत में कहा, तालिबान अकेला नहीं है, बल्कि उसके साथ 21 बड़े आतंकी संगठन काम कर रहे हैं। इस सूची में लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और अल-कायदा जैसे आतंकी संगठनों का भी नाम शामिल हैं। भारत की चिंता इसलिए भी बढ़ जाती है कि ये संगठन जम्मू-कश्मीर सहित देश के विभिन्न हिस्सों में सक्रिय हैं। हालांकि फरीद मामुंदजई कहते हैं, अभी भारत से सैन्य मदद की जरूरत नहीं है। आने वाले दिनों में सैन्य मदद की आवश्यकता पड़ सकती है।
अंतरराष्ट्रीय मामलों के एक्सपर्ट एवं 'गेटवे हाउस मुंबई' के रिसर्च फेलो समीर पाटिल कहते हैं, भारत की ओर से 1983 में जिस तरह मॉरीशस में 'ऑपरेशन लाल डोरा' को अंजाम दिया गया, वैसा 'अफगानिस्तान' में तालिबान के खिलाफ संभव नहीं है। वजह, अफगानिस्तान में भारत के पास अभी 'क्विक एग्जिट' नहीं है। ऐसे में सैन्य कार्रवाई बहुत मुश्किल होती है।
अफगानिस्तान में 2001 से 2021 तक रहीं अमेरिकी सेनाएं
तालिबान को खदेड़ने के लिए जॉर्ज डब्लू बुश ने साल 2001 में सैन्य अभियान शुरू किया था। उस वक्त बुश का मकसद तालिबान की तानाशाही को खत्म करना था। आज 2021 में मौजूदा राष्ट्रपति 'जो बाइडन' के समय जब यूएस आर्मी वापस लौट रही है तो पूर्व राष्ट्रपति बुश ने कहा, 'अफगान महिलाएं और लड़कियां अकथनीय क्षति का सामना करने जा रही हैं। ये एक गलती है, क्योंकि इसके बहुत बुरे परिणाम सामने आएंगे। रिसर्च फेलो समीर पाटिल के अनुसार, 2014 में आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद ने कहा था, यूएस तो अफगानिस्तान से चला जाएगा, अब हम कश्मीर से भारतीय सुरक्षा बलों को खदेड़ देंगे। आज हाफिज सईद समेत दुनिया के बड़े आतंकी संगठन तालिबान के साथ खड़े हैं। पाकिस्तान की भूमिका के बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है। सवाल यह भी उठता है कि जब दो दशक में सुपर पावर कंट्री अमेरिका कुछ नहीं कर सका तो किसी दूसरे देश के लिए अफगानिस्तान में जाकर तालिबान से निपटना इतना आसान नहीं है।
क्या है 'क्विक एग्जिट' और 'ऑपरेशन लाल डोरा'
साल 2013 में एशियन सिक्योरिटी मैगजीन में ऑस्ट्रेलिया के प्रोफेसर डेविड ब्रूस्टर और भारतीय नौसेना के पूर्व गुप्तचर रहे रंजीत राय ने 'ऑपरेशन लाल डोरा: इंडियाज एबॉर्टेड मिलिट्री इंटरवेंशन इन मॉरीशस' नाम से एक लेख लिखा था। इसमें ऑपरेशन लाल डोरा के राज से पर्दा हटा था। यह अलग बात है कि भारत सरकार आधिकारिक तौर पर आज भी इस ऑपरेशन से खुद को दूर रखे हुए है। मॉरीशस के तत्कालीन राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ को अपनी सरकार का तख्तापलट होने का आभास हुआ। इसके लिए सोवियत समर्थक वामपंथी कैबिनेट अधिकारी पॉल बेरेंजर का नाम लिया गय। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय हितों की रक्षा के लिए सैन्य हस्तक्षेप की योजना बनाई थी। इसे ही 'ऑपरेशन लाल डोरा' का नाम दिया गया। सेना का साजो सामान तैयार हो गया। ऑपरेशन शुरू होने वाला था कि पॉल बेरेंजर को इसकी खबर लग गई।
बेरेंजर ने तख्तापलट की योजना रद्द कर दी। नतीजा, भारत ने अपने सैन्य बल वहां नहीं भेजे। समीर पाटिल कहते हैं, वहां हमारे लिए क्विक एग्जिट था। यानी सामने ऑब्जेक्ट क्लीयर था। हमें क्या और कैसे करना है, किन लोगों के बीच करना है। तालिबान के खिलाफ वह स्थिति नहीं मिलेगी। यहां क्विक एग्जिट नहीं है। खासतौर पर, सिविल वॉर के इलाक़े में यह नहीं पता चलता कि कौन किसके साथ है। पैसे के लिए कौन लड़ रहा है और कट्टरता के लिए किसने हथियार उठाए हैं। सामने असल दुश्मन कौन है, ये नहीं मालूम। कल किसका साथ रहेगा, ये भी नहीं पता। अफगान नेशनल आर्मी में अनेक पूर्व तालिबानी कमांडर हैं। वे जब भर्ती हुए थे तो उन्हें अच्छे वेतन और सुविधाओं की लालसा थी। यूएस आर्मी के साथ काम करने का मौका मिला। अब जैसे ही तालिबान का प्रभाव बढ़ रहा है तो ऐसी संभावना है कि वे कमांडर दोबारा से तालिबान के पाले में आ जाएं।
भारत के लिए कूटनीति ही सहारा
नई दिल्ली में अफगानिस्तान के राजदूत फरीद मामुंदजई ने कहा है कि भारत कई तरह से हमारी मदद कर सकता है। दुनिया में आज भारत एक बड़ी शक्ति बनकर उभरा है। वह अफगानिस्तान में शांति बहाली के लिए कूटनीतिक प्रयास करेगा, ऐसा हमें मालूम है। इस वक्त हमारे पास चार लाख सैनिक हैं। अमेरिकी मदद मिल रही है। बाद में जब ऐसा कुछ नहीं होगा तो भारत से सैन्य मदद की उम्मीद रखेंगे। समीर पाटिल के अनुसार, अफगानिस्तान में भारत को अपने हित साधने होंगे। इसका एक बड़ा रास्ता कूटनीतिक प्रयास हैं। वहां पर विकास के अनेक प्रोजेक्ट जैसे पावर, सड़क, बांध, रेलवे व दूसरी कई योजनाओं में भारत की बड़ी हिस्सेदारी है। दोनों देशों के बीच 'गुडविल' रहा है। अगर तालिबान वहां टारगेट करता है तो गुडविल खत्म हो जाएगा। भारत, अभी वहां पर किसी तरह का हस्तक्षेप करेगा, ऐसा नहीं लगता है। भारत अपनी छवि और ताकत का इस्तेमाल कर अफगानिस्तान में शांति बहाली का कूटनीतिक प्रयास जारी रखेगा।
तालिबान से खाली लौटी हैं दो महाशक्तियां
चीन के बड़े प्रोजेक्ट जैसे 'वन बेल्ट वन रोड' और 'चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर', अफगानिस्तान में चल रहे हैं। अगर तालिबान वहां कोई बाधा खड़ी करता है तो चीन कोई कदम उठा सकता है। हालांकि तालिबान ने चीन को भरोसा दिलाया है कि वह उसके प्रोजेक्ट में बाधा नहीं डालेगा। तालिबान के प्रवक्ता सुहेल शाहीन ने कहा है, उनका संगठन चीन को एक दोस्त के रूप में देखता है। चीन के वीगर अलगाववादी लड़ाकों को अफगानिस्तान में घुसने की इजाजत नहीं दी जाएगी। अफगानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप के द्वारा तालिबान पर काबू पाना आसान नहीं है। तत्कालीन सोवियत यूनियन, 1979 में अफगान कम्युनिस्ट पार्टी को मदद देने के लिए 10 साल तक वहां रहा। बाद में उसे खुद ही पीछे हटना पड़ा। अमेरिका को बीस साल बाद वापस जाना पड़ रहा है। यूएस आर्मी को यह कह कर वहां भेजा गया था कि वे अलकायदा को खत्म करेंगे। तालिबान को खदेड़ देंगे। आज दोनों ही जिंदा हैं। ऐसे में भारत को बहुत संभलकर कदम उठाना है। जम्मू-कश्मीर में दशकों से आतंकवाद जारी है। अब पाकिस्तान ने तालिबान के साथ खड़े आतंकी समूहों को जम्मू-कश्मीर में कुछ करने के लिए उकसा दिया तो वह बहुत खराब परिणाम की ओर ले जा सकता है।
विस्तार
अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते प्रभाव से भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक छोटे बड़े देश चिंतित हैं। नई दिल्ली में अफगानिस्तान के राजदूत फरीद मामुंदजई ने मीडिया से बातचीत में कहा, तालिबान अकेला नहीं है, बल्कि उसके साथ 21 बड़े आतंकी संगठन काम कर रहे हैं। इस सूची में लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और अल-कायदा जैसे आतंकी संगठनों का भी नाम शामिल हैं। भारत की चिंता इसलिए भी बढ़ जाती है कि ये संगठन जम्मू-कश्मीर सहित देश के विभिन्न हिस्सों में सक्रिय हैं। हालांकि फरीद मामुंदजई कहते हैं, अभी भारत से सैन्य मदद की जरूरत नहीं है। आने वाले दिनों में सैन्य मदद की आवश्यकता पड़ सकती है।
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अंतरराष्ट्रीय मामलों के एक्सपर्ट एवं 'गेटवे हाउस मुंबई' के रिसर्च फेलो समीर पाटिल कहते हैं, भारत की ओर से 1983 में जिस तरह मॉरीशस में 'ऑपरेशन लाल डोरा' को अंजाम दिया गया, वैसा 'अफगानिस्तान' में तालिबान के खिलाफ संभव नहीं है। वजह, अफगानिस्तान में भारत के पास अभी 'क्विक एग्जिट' नहीं है। ऐसे में सैन्य कार्रवाई बहुत मुश्किल होती है।
अफगानिस्तान में 2001 से 2021 तक रहीं अमेरिकी सेनाएं
तालिबान को खदेड़ने के लिए जॉर्ज डब्लू बुश ने साल 2001 में सैन्य अभियान शुरू किया था। उस वक्त बुश का मकसद तालिबान की तानाशाही को खत्म करना था। आज 2021 में मौजूदा राष्ट्रपति 'जो बाइडन' के समय जब यूएस आर्मी वापस लौट रही है तो पूर्व राष्ट्रपति बुश ने कहा, 'अफगान महिलाएं और लड़कियां अकथनीय क्षति का सामना करने जा रही हैं। ये एक गलती है, क्योंकि इसके बहुत बुरे परिणाम सामने आएंगे। रिसर्च फेलो समीर पाटिल के अनुसार, 2014 में आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद ने कहा था, यूएस तो अफगानिस्तान से चला जाएगा, अब हम कश्मीर से भारतीय सुरक्षा बलों को खदेड़ देंगे। आज हाफिज सईद समेत दुनिया के बड़े आतंकी संगठन तालिबान के साथ खड़े हैं। पाकिस्तान की भूमिका के बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है। सवाल यह भी उठता है कि जब दो दशक में सुपर पावर कंट्री अमेरिका कुछ नहीं कर सका तो किसी दूसरे देश के लिए अफगानिस्तान में जाकर तालिबान से निपटना इतना आसान नहीं है।
क्या है 'क्विक एग्जिट' और 'ऑपरेशन लाल डोरा'
साल 2013 में एशियन सिक्योरिटी मैगजीन में ऑस्ट्रेलिया के प्रोफेसर डेविड ब्रूस्टर और भारतीय नौसेना के पूर्व गुप्तचर रहे रंजीत राय ने 'ऑपरेशन लाल डोरा: इंडियाज एबॉर्टेड मिलिट्री इंटरवेंशन इन मॉरीशस' नाम से एक लेख लिखा था। इसमें ऑपरेशन लाल डोरा के राज से पर्दा हटा था। यह अलग बात है कि भारत सरकार आधिकारिक तौर पर आज भी इस ऑपरेशन से खुद को दूर रखे हुए है। मॉरीशस के तत्कालीन राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ को अपनी सरकार का तख्तापलट होने का आभास हुआ। इसके लिए सोवियत समर्थक वामपंथी कैबिनेट अधिकारी पॉल बेरेंजर का नाम लिया गय। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय हितों की रक्षा के लिए सैन्य हस्तक्षेप की योजना बनाई थी। इसे ही 'ऑपरेशन लाल डोरा' का नाम दिया गया। सेना का साजो सामान तैयार हो गया। ऑपरेशन शुरू होने वाला था कि पॉल बेरेंजर को इसकी खबर लग गई।
बेरेंजर ने तख्तापलट की योजना रद्द कर दी। नतीजा, भारत ने अपने सैन्य बल वहां नहीं भेजे। समीर पाटिल कहते हैं, वहां हमारे लिए क्विक एग्जिट था। यानी सामने ऑब्जेक्ट क्लीयर था। हमें क्या और कैसे करना है, किन लोगों के बीच करना है। तालिबान के खिलाफ वह स्थिति नहीं मिलेगी। यहां क्विक एग्जिट नहीं है। खासतौर पर, सिविल वॉर के इलाक़े में यह नहीं पता चलता कि कौन किसके साथ है। पैसे के लिए कौन लड़ रहा है और कट्टरता के लिए किसने हथियार उठाए हैं। सामने असल दुश्मन कौन है, ये नहीं मालूम। कल किसका साथ रहेगा, ये भी नहीं पता। अफगान नेशनल आर्मी में अनेक पूर्व तालिबानी कमांडर हैं। वे जब भर्ती हुए थे तो उन्हें अच्छे वेतन और सुविधाओं की लालसा थी। यूएस आर्मी के साथ काम करने का मौका मिला। अब जैसे ही तालिबान का प्रभाव बढ़ रहा है तो ऐसी संभावना है कि वे कमांडर दोबारा से तालिबान के पाले में आ जाएं।
भारत के लिए कूटनीति ही सहारा
नई दिल्ली में अफगानिस्तान के राजदूत फरीद मामुंदजई ने कहा है कि भारत कई तरह से हमारी मदद कर सकता है। दुनिया में आज भारत एक बड़ी शक्ति बनकर उभरा है। वह अफगानिस्तान में शांति बहाली के लिए कूटनीतिक प्रयास करेगा, ऐसा हमें मालूम है। इस वक्त हमारे पास चार लाख सैनिक हैं। अमेरिकी मदद मिल रही है। बाद में जब ऐसा कुछ नहीं होगा तो भारत से सैन्य मदद की उम्मीद रखेंगे। समीर पाटिल के अनुसार, अफगानिस्तान में भारत को अपने हित साधने होंगे। इसका एक बड़ा रास्ता कूटनीतिक प्रयास हैं। वहां पर विकास के अनेक प्रोजेक्ट जैसे पावर, सड़क, बांध, रेलवे व दूसरी कई योजनाओं में भारत की बड़ी हिस्सेदारी है। दोनों देशों के बीच 'गुडविल' रहा है। अगर तालिबान वहां टारगेट करता है तो गुडविल खत्म हो जाएगा। भारत, अभी वहां पर किसी तरह का हस्तक्षेप करेगा, ऐसा नहीं लगता है। भारत अपनी छवि और ताकत का इस्तेमाल कर अफगानिस्तान में शांति बहाली का कूटनीतिक प्रयास जारी रखेगा।
तालिबान से खाली लौटी हैं दो महाशक्तियां
चीन के बड़े प्रोजेक्ट जैसे 'वन बेल्ट वन रोड' और 'चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर', अफगानिस्तान में चल रहे हैं। अगर तालिबान वहां कोई बाधा खड़ी करता है तो चीन कोई कदम उठा सकता है। हालांकि तालिबान ने चीन को भरोसा दिलाया है कि वह उसके प्रोजेक्ट में बाधा नहीं डालेगा। तालिबान के प्रवक्ता सुहेल शाहीन ने कहा है, उनका संगठन चीन को एक दोस्त के रूप में देखता है। चीन के वीगर अलगाववादी लड़ाकों को अफगानिस्तान में घुसने की इजाजत नहीं दी जाएगी। अफगानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप के द्वारा तालिबान पर काबू पाना आसान नहीं है। तत्कालीन सोवियत यूनियन, 1979 में अफगान कम्युनिस्ट पार्टी को मदद देने के लिए 10 साल तक वहां रहा। बाद में उसे खुद ही पीछे हटना पड़ा। अमेरिका को बीस साल बाद वापस जाना पड़ रहा है। यूएस आर्मी को यह कह कर वहां भेजा गया था कि वे अलकायदा को खत्म करेंगे। तालिबान को खदेड़ देंगे। आज दोनों ही जिंदा हैं। ऐसे में भारत को बहुत संभलकर कदम उठाना है। जम्मू-कश्मीर में दशकों से आतंकवाद जारी है। अब पाकिस्तान ने तालिबान के साथ खड़े आतंकी समूहों को जम्मू-कश्मीर में कुछ करने के लिए उकसा दिया तो वह बहुत खराब परिणाम की ओर ले जा सकता है।
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